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________________ जैन एवं बौद्ध धर्म-दर्शन तथा उनके साहित्य २५ उसके भी वे प्रथम प्रस्तोता माने जाते हैं। उनकी जीवनी और उनकी धर्मक्रान्ति के सम्बन्ध में न केवल जैन ग्रन्थों में उल्लेख मिलते हैं बल्कि जैनेतर ग्रन्थों में भी मिलते हैं। भगवान् ऋषभदेव की ऐतिहासिकता जानने व प्रमाणित करने के लिये हमारे समक्ष दो आधारबिन्दु हैं- १. पुरातत्त्व उत्खनन से प्राप्त सामग्री और २. साहित्यिक साक्ष्य। मोहनजोदड़ो जिसका काल ३२५०-२७५० ई०पू० माना जाता है, की खुदाई में प्राप्त मुहरों में एक ओर नग्न ध्यानस्थ योगी की आकृति बनी है तो दूसरी ओर वृषभ का चिह्न है। वृषभ भगवान् ऋषभदेव का लांछन माना जाता है। सर जॉन मार्शल ने लिखा है कि मोहनजोदड़ो में एक त्रिमुखी नरदेवता की मूर्ति मिली है। वह देवता एक कम उँचे पीठासन पर योगमुद्रा में बैठा है। उसके दोनों पैर इस प्रकार मुड़े हैं कि एड़ी से एड़ी मिल रही है, अंगूठे नीचे की ओर मुड़े हुए हैं एवं हाथ घुटने के ऊपर आगे की ओर फैले हुये हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर अंकित चित्र में त्रिरत्न का मुकुट विन्यास, नग्नता, कायोत्सर्ग मुद्रा, नासाग्रदृष्टि, योगचर्या, बैल आदि के चिह्न मिले हैं जो जैन धर्म की प्राचीनता को दर्शाते हैं। खुदाई में प्राप्त मुहरों के अध्ययन के पश्चात् प्रो०रामप्रसाद चन्दा ने लिखा है- सिन्धु मुहरों में से कुछ मुहरों पर उत्कीर्ण देव मूर्तियाँ न केवल योगमुद्रा में अवस्थित हैं और न उस प्राचीन युग में सिन्धु घाटी में प्रचलित योग परम्परा पर प्रकाश डालती हैं वरन् उन मुहरों में खड़े हुये देवता योग की खड़ी मुद्रा को भी प्रकट करते हैं। खड़ी कायोत्सर्ग मुद्रा जैन परम्परा में प्रचलित साधनापद्धति की परिचायक है। ऋषभदेव की प्राचीनता पर प्रकाश डालते हये श्री रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं- मोहनजोदड़ो की खुदाई में योग के प्रमाण मिले हैं और जैन मार्ग के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव थे जिनके साथ योग और वैराग्य की परम्परा उसी प्रकार लिपटी हुई है जैसे कालान्तर में वह शिव के साथ सम्बन्धित थी। इस दृष्टि से कई जैन विद्वानों का यह मानना अयुक्तियुक्त नहीं दिखता कि ऋषभदेव वेदोल्लेखित होने पर भी वेदपूर्व हैं। ऋग्वेद में ऋषभदेव की स्तुति करते हुये कहा गया है- हे देव! मुझे समान पदवाले व्यक्तियों में श्रेष्ठ बना, शत्रुओं (कषायरूपी) को विशेष रूप से पराजित करने में समर्थ कर, शत्रुओं का नाश करनेवाला और विशेष प्रकार से अत्यन्त शोभायमान होकर गायों का स्वामी बना। अथर्ववेद में ऋषभदेव को तारणहार के रूप में प्रतिष्ठित करते हुये कहा गया है कि जो ब्राह्मण ऋषभ को अच्छी तरह से प्रसन्न करता है वह शीघ्र सैकड़ों प्रकार के संतापों से मुक्त हो जाता है, उसको सब दिव्य गुण तृप्त करते हैं।१० उपर्युक्त उद्धरणों से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि ऋषभदेव ऐतिहासिक पुरुष थे व जैन धर्म के प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और धर्मचक्रवर्ती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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