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शिक्षा-दर्शन : एक सामान्य परिचय
सम्बन्ध की मर्यादा निश्चित करे। वह यह स्पष्ट करे कि किन-किन रूपों में अर्थ को शिक्षा का साधन अथवा साध्य बनना चाहिए। शिक्षा-दर्शन की राजनैतिक समस्याएँ
शिक्षा का सम्बन्ध राज अथवा राजनीति से भी होता है। शिक्षा-व्यवस्था जब जंगलों से आकर गाँवों और शहरों में स्थापित हुई तब उसे राज और राजनीति से सम्बन्धित होना पड़ा। अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शिक्षा-व्यवस्था को अनुदान की आवश्यकता हुई और उसे सरकार से अनुदान प्राप्त होने लगे। देश की राजनीति और देश में प्रसारित शिक्षा एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं और निकटता का सम्बन्ध रखते हैं। शिक्षा के अनुकूल आगे की राजनीति निर्धारित होती है और जैसी राजनीति होती है, वैसी शिक्षा भी दी जाती है। देश में राजतन्त्र हो अथवा प्रजातन्त्र, उसका विकास तभी होता है, जब उसके अनुकूल वहाँ के लोग शिक्षित या प्रशिक्षित हों। यहाँ भी यह समस्या उत्पन्न होती है कि शिक्षा-व्यवस्था को किस सीमा तक राज्य से अनुदान ग्रहण करना चाहिए और देश की राजनीति के लिए किस हद तक शिक्षा-व्यवस्था को काम करना चाहिए। इसके औचित्य का निर्धारण करना शिक्षा-दर्शन का ही काम है। शिक्षा-दर्शन ही उन मूल सिद्धान्तों को निरूपित करता है जिनसे शिक्षा
और राजनीति के सम्बन्ध बनते हैं। शिक्षा-दर्शन की धार्मिक समस्याएँ
समाज में धर्म का प्रचार-प्रसार धर्मगुरुओं के द्वारा होता है, परन्तु पाठशालाओं में भी बच्चों को प्रारम्भिक शिक्षा के रूप में धर्माचरण की बातें सिखलायी जाती हैं जैसे- सत्य बोलो, धर्माचरण करो, माता-पिता एवं आचार्य देवतुल्य होते हैं इत्यादि। यह सामान्य धार्मिक शिक्षा है, परन्तु पाठशालाओं में कहीं-कहीं विशेष धर्म की भी शिक्षा दी जाती है। विशेष धर्म की शिक्षा समाज में रहनेवालों की धार्मिक मान्यता तथा सरकार की सहमति से होती है परन्तु समग्रता और उदारता की दृष्टि से शिक्षा-व्यवस्था वैसी धार्मिक शिक्षा दे अथवा न दे यह निर्धारित करना शिक्षा-दर्शन का ही कार्य है क्योंकि शिक्षा-दर्शन हर शिक्षण अथवा प्रशिक्षण के पीछे एक दार्शनिक पृष्ठभूमि देखना चाहता है। शिक्षा-दर्शन की दार्शनिक समस्याएँ
शिक्षा-दर्शन, दर्शन का एक अंग है, अत: यह कहना कठिन है कि शिक्षा-दर्शन की दार्शनिक समस्या क्या हो सकती है? फिर भी, इतना तो कहा ही जा सकता है कि शिक्षा-दर्शन की दार्शनिक समस्या वहाँ सामने आती है जब वह दर्शन की समग्रता
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