SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२४ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन (ङ) अनुकूल अनुशासन और स्वच्छन्द वातावरण के निर्माण के लिए शिक्षक को चाहिए कि वे सदैव विद्यार्थी बने रहें और विद्यार्थी को चाहिए वह शिक्षा ग्रहण करने के लिए स [ प्रयत्नशील रहे। तीसरा अंग समाज है जिसके परिवेश में बालकों की शिक्षा सम्पन्न होती है। सामाजिक परिवेश में ही विद्यार्थी को जीवन बिताना है। समाज और व्यक्ति का सम्बन्ध इतना घनिष्ठ है कि व्यक्ति में सुधार लाने के लिए समाज में सुधार लाना आवश्यक है। सामाजिक परिवेश को सुधारे बिना हम व्यक्ति के सुधार की कल्पना नहीं कर सकते हैं। अत: समाज का भी विद्यार्थियों के प्रति कुछ उत्तरदायित्व बनता है - (क) समाज उन विद्यार्थियों और व्यक्तियों को सम्मानित करे जिनका जीवन सदाचार, सेवा, परोपकार आदि उच्च मूल्यों को साकार करने में लगा हो। (ख) गुरुकुल पद्धति पर आधारित आवासीय शिक्षण-संस्थाओं का निर्माण किया जाये जिससे विद्यार्थी समाज के दूषित वातावरण से अलग रहे। (ग) मादक द्रव्यों के सेवन; व्यभिचार, वेश्यावृत्ति आदि को समाप्त करने का सफल प्रयास किया जाये। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यदि अभिभावक, शिक्षक और समाज ये त्रिकोणीय स्तम्भ आपस में मिलकर, एकजुट होकर शिक्षा के क्षेत्र में सामूहिक विचार करें, सामूहिक निर्णय लें तो अवश्य ही हमारी भारतीय शिक्षण-प्रणाली पुनः सुचरित्र, सदाचारी एवं कुशाग्र बुद्धि के विद्यार्थियों को जन्म दे सकती है। इस प्रश्न का उठना भी यहाँ स्वाभाविक है कि आज की सामाजिक तथा शैक्षिक समस्याओं को सुधारने में जैन एवं बौद्ध शिक्षा दर्शन कहाँ तक और किस रूप में भूमिका अदा कर सकते हैं। ये दोनों परम्परायें प्राचीन हैं और इनकी पद्धतियाँ भी पुरातन हैं। मानव जीवन के विविध पक्ष होते हैं और उनकी अपनी-अपनी समस्याएँ होती हैं। शिक्षा की भी अपनी समस्यायें हैं। व्यक्ति को शिक्षित करना, सुव्यवस्थित जीवन के लिए दिशा-निर्देश करना शिक्षा का कार्य है। यह बात प्राचीनकाल में थी और आज भी है। परन्तु देश और काल के अनुसार प्राचीन और अर्वाचीन में अन्तर होता है। प्राचीनता अपने को अर्वाचीनता के बीच तभी प्रतिष्ठित कर पाती है जब अपने में कुछ परिवर्तन लाकर अर्वाचीन के साथ सामञ्जस्य कायम करती है। यही बात जैन एवं बौद्ध शिक्षा दर्शनों के साथ है। इनका उपयोग तभी देखा जा सकता है जब इनमें आज के अनुसार परिवर्तन हों। जैन-परम्परा की दिगम्बर शाखा में आचार्य आज भी नग्न ही रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy