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________________ १७८ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन विचार कर उनका अनुशासन स्वीकार करना।४९ गुरु मुझे पुत्र, भाई और स्वजन की तरह आत्मीय समझकर शिक्षा देते हैं, ऐसा समझकर उनके अनुशासन को कल्याणकारी मानना। ५० गुरु के मनोनुकूल वैसे ही आचरण करना जैसे उत्तम शिक्षित घोड़ा चाबुक देखकर उन्मार्ग छोड़ देता है।५१ न गुरु को कुपित करना और न कठोर अनुशासनादि से स्वयं ही कुपित होना और न गुरु के दोषों का अन्वेषण ही करना।१२ गुरु के बुलाने पर मौन रहना, ऐसे आसन पर बैठना जो गुरु के आसन से नीचा हो, जिससे कोई आवाज न निकलती हो, जो स्थिर हो।५३ उनके आसन के बराबर न बैठना, न आगे, न पीछे ही सटकर बैठना।५४ गुरु के अति निकट भी न बैठना क्योंकि संघट्टा हो जाने की संभावना रहती है, यदि संघट्टा हो भी जाये तो उसी समय क्षमायाचना करते हुए कहना - भगवन्! दास का यह अपराध क्षमा करें, फिर कभी ऐसा नहीं होगा।५५ गरुश्री के एक बार अथवा अधिक बार आमन्त्रित करने पर अपने आसन पर से ही आज्ञा सुनकर उत्तर नहीं देना बल्कि आसन छोड़कर विनम्र भाव से कथित आज्ञा को सुनकर तदनुसार उत्तर देना।५६ पलथी लगाकर दोनों हाथों से शरीर को बाँधकर तथा पैरों को फैलाकर भी नहीं बैठना ।५७ आसन अथवा शय्या पर बैठे-बैठे कभी भी गुरु से कोई बात नहीं पूछना, बल्कि उनके समीप आकर, उकडूं आसन में बैठकर हाथ जोड़कर पूछना।५८ आसन से निष्प्रयोजन न उठना, स्थिर एवं शान्त होकर बैठना।५९ शिक्षा प्राप्ति के बाद गुरु की कृतज्ञता स्वीकार करते हुए विनयभाव से वन्दना करना। पांच प्रकार के विनय (खड़ा होना, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरुजनों की भक्ति तथा भावपूर्वक शुश्रूषा करना), पंचविध स्वाध्याय (वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा) तथा आचार्य से सम्बन्धित दस प्रकार के वैयावृत्य में सदा संलग्न रहना।६° क्षेत्र, काल आदि भावों, गुरु के मनोगत अभिप्रायों तथा सेवा करने के समुचित साधनों को भली प्रकार से मालूम करके तत्-तत् उपायों से कार्य का सम्पादन करना।६१ शिक्षार्थी के प्रकार विनीत-अविनीत के अतिरिक्त शैल, कूट, छलनी, परिपूषग, हंस, महिष, मेढे, मच्छर, जलोगे, बिलाड़ी, जाहग, गाय, भेरी और आभिरी आदि की उपमा देकर शिक्षार्थी के चौदह प्रकार बताये गये हैं६२ (१) शैल- कुछ शिष्य पर्वत के समान कठोर तथा कृष्णभूमि (काली मिट्टी वाली जमीन) के समान गुरु द्वारा बताये गये अर्थ ग्रहण करने में समर्थ होते हैं। (२) कूट- कूट (घट) के चार प्रकार के बताये गये हैं- (क) छिद्रकुट, जिसके पेंदी में छिद्र हो, (ख) खण्डकुट - जिसके कने टूटे हों, (ग) बोटकुट - जिसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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