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जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
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४५. रसरुधिरमांसमेदाऽस्थिमज्जा शुक्रा यनेन तप्यन्ते, कर्माणि वा शुभानीत्यतस्तपो नाम
निरुक्तः। 'स्थानांग वृत्ति', ५/३. ४६. तापयति अष्टप्रकार कर्म इति तपः। - ‘आवश्यक' (मलयगिरि), खण्ड २, अ० १. ४७. सो तवो दुविहो वुत्तो बाहिरब्भन्तरो तहा। - 'उत्तराध्ययन', ३०/७. ४८. आहारपच्चच्खाणेण जीवियासंसप्पओगं वोच्छिदंइ। वही, २९/३५. ४९. 'सूत्रकृतांग', १/१०/६. ५०. उच्चनीयमज्झिम कुलाई अडमाणे। 'अंतगददशा' ६/१५.
'जैन धर्म में तप : स्वरूप और विश्लेषण', पृ०-२३२ ५२. रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं।
दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी।। 'उत्तराध्ययन', ३२/१०. ५३. 'प्रवचनसार', ३/२७
'जैनधर्म में तप',पृ०-२८५.
'भगवती', २५/७ ५६. अपराधो वा प्राय: चित्तं-शुद्धिः। प्रायस् चित्तं प्रायश्चित्तं- अपराध विशुद्धिः। -
'राजवार्तिक', ९/२२/१. ५७. धम्मस्स विणओ मूलं। 'दावैकालिक' (विनयसमाधि), ४७० ५८. एवं धम्मस्स विणओ मूलं परमो से मुक्खो। वही ५९. परस्परोपग्रहो जीवानाम्। 'तत्त्वार्थसूत्र', ५/२१. ६०. उत्तराध्ययन, २९/३.६३. सुष्ठुआ- मर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः। 'स्थानांग'
(अभयदेव टीका) ५/३/४६५ ६१. पुव्वं च जं तदुत्तं चित्तस्ससेगग्गया हवइ झाणं।
आवनमणेगग्गं चित्त चिय तं न तं झाणं!। 'आवश्यकनियुक्ति' १४९९ ६२. निःसंग-निर्भयत्व जीविताशा व्युदासाघों व्युत्सर्गः। 'तत्त्वार्थराजवार्तिक', ९/२६/
१०. ६३. 'श्रमणसूत्र', उपा० अमरमुनि, पृ०-६१. ६४. सामाइयंति समभावलक्खणं। 'विशेषावश्यकभाष्य', ९०५
"धर्मामृत' (अनगार), पृ०-५६८ 'श्रमणसूत्र', पृ०-६९
वही, पृ०-६९ ६८. विणओवयार माणस्स भंजणा पूअणा गुरुजणस्स।
तित्थयराण य आणा सुयधम्माराहणाऽकिरिया।। 'आवश्यकनियुक्ति', १२२९ ६९. 'श्रमणसूत्र', पृ०-८८-८९ ७०. अविरतिस्वरूपप्रभृति प्रतिकूलतया आ मर्यादया आकारकरणस्वरूपया आख्यानं
कथनं प्रत्याख्यानं। -'प्रवचनसारोद्धार वृत्ति', उद्धृत 'श्रमणसूत्र', पृ०-०४
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