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शिक्षक की योग्यता एवं दायित्व (१) जो प्रधान शीलों में दोष रहित हो। (२) जितेन्द्रिय अर्थात् अपेक्षित आचारवाला और इन्द्रियों में सुसंयमी हो। (३) जिसे विरोधी भी धर्म से दोषी नहीं कह सके। (४) विषयों में विशारद हो। (५) जो सभा में विचलित न हो। (६) जो विहितों की गणना करते समय किसी बात को नहीं छोड़ता। (७) प्रत्युत्पन्नमतित्व अर्थात् जो सभा में प्रश्न पूछने पर तुरन्त उत्तर देने में समर्थ हो। (८) जो पण्डित काल से प्राप्त उत्तर देने योग्य वचन को कहकर विज्ञों की सभा का
रंजन करता हो। (९) जो बुजुर्ग भिक्षुओं में भी आदरयुक्त देखा जाता हो। (१०) अपने मतों की मीमांसा करने में समर्थ तथा विरोधियों के भाव को
जाननेवाला हो। (११) सुबोध व्याख्या शैली हो जिससे सर्वसाधारण भी बात को समझ पाये। (१२) प्रश्न का उत्तर देते समय बिना हानि किये अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्त को
नहीं त्यागनेवाला। (१३) जो दूतकर्म में समर्थ तथा अपने किये गये कार्य पर अभिमान नहीं करता। (१४) जो दोनों विभंग को अच्छी तरह जानता हो। (१५) जो विभंग का कोविद जानता हो। गुरु (उपाध्याय) के कर्तव्य
प्राय: सभी शिक्षक अपने धर्म और सम्प्रदाय में निर्धारित नियमों के अनुसार शिष्य के साथ समुचित व्यवहार करते थे। 'विनयपिटक' में शिष्य के प्रति उपाध्याय के बताये गये कर्तव्य इस प्रकार हैं(१) उपाध्याय को शिष्य पर अनुग्रह करना चाहिए। (२) शिष्य को उपदेश देना चाहिए। (३) पात्र देना चाहिए।
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