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________________ शिक्षक की योग्यता एवं दायित्व १३७ जो ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी तप की प्ररूपणा करनेवाला हो, (४१) जो चरण और करण का धारक हो, (४२) जो ज्ञान-दर्शन और चारित्ररूपी तपों के गुणों में प्रभावक हो, (४३) जो दृढ़ सम्यक्त्ववाला हो, (४४) जो सतत् परिश्रम करनेवाला हो, (४५) जो धैर्य रखने में समर्थ हो, (४६) जो गम्भीर स्वभाववाला हो, (४७) जो अतिशय कान्तिवाला हो, (४८) सूर्य की भाँति तप रूपी तेज से दूसरे द्वारा पराजित न होनेवाला हो, (४९) दान-शील-तप और भावनारूपी चतुर्विध धर्म में उत्पन्न करनेवाले विघ्नों से डरनेवाला हो, (५०) जो सभी प्रकार की अशातनाओं से डरनेवाला हो, (५१) ऋद्धि-रस-सुख आदि तथा रौद्र आर्त आदि ध्यानों से अत्यन्त मुक्त हो, (५२) सभी आवश्यक क्रियायों में उद्यत हो, (५३) जो विशेष लब्धियों से युक्त हो, (५४) जो बहुनिद्रा न करनेवाला हो, (५५) जो बहुभोजी न हो, (५६) जो सभी आवश्यक, स्वाध्याय, ध्यान, अभिग्रह आदि में परिश्रमी हो, (५७) जो परीषह और उपसर्ग में न घबरानेवाला हो, (५८) जो योग्य शिष्य को संग्रहित करने में सक्षम हो, (५९) अयोग्य शिष्य का त्याग करने की विधि जाननेवाला हो, (६०) जो मजबूत शरीरवाला हो, (६१) जो स्व-पर शास्त्रों का मर्मज्ञ हो, (६२) क्रोध, मान, माया, लोभ, ममता, रति, हास्य, क्रीड़ा, काम, अहितवाद आदि बाधाओं से सर्वथा मुक्त हो, (६३) जो सांसारिक विषयों में लिप्त रहनेवाले व्यक्ति को अपने अभिभाषण/धर्मोपदेश द्वारा वैराग्य उत्पन्न कराने में समर्थ हो, (६४) जो भव्य जीवों को प्रतिबोध द्वारा गच्छ में लानेवाला हो। उपर्युक्त गुणों का विवेचन करने के पश्चात् यह कहा गया है कि इन गुणों से युक्त साधु (गुरु) गणी हैं, गणधर हैं, तीर्थ हैं, अरिहन्त हैं, केवली हैं, जिन हैं, तीर्थप्रभावक हैं, वंद्य हैं, पूज्य हैं, नमस्करणीय हैं, दर्शनीय हैं, परमपवित्र हैं, परम कल्याण हैं, परममंगल हैं, सिद्ध हैं, मुक्त हैं, शिव हैं, मोक्ष हैं, रक्षक हैं, सन्मार्ग हैं, गति हैं, शरण्य हैं, पारंगत और देवों के देव हैं।२३ आचार्य पद पर नियुक्त होने की योग्यताएँ ___ जीवन के निर्माण में गुरु एक महान विभूति के रूप में प्रस्तुत होता है, परन्तु उस महान विभूति का योग्य होना भी आवश्यक है, क्योंकि यदि गुरु ही अयोग्य होगा तो शिष्य योग्य कैसे बन सकता है? जैन ग्रन्थों में गुरु की योग्यता बताते हुए कहा गया है- जो संग्रह और अनुग्रह में कुशल हो (दीक्षा आदि देकर शिष्यों को संघ में एकत्रित करना संग्रह है और पुन: उन शिष्यों को शास्त्रादि ज्ञान द्वारा संस्कारयुक्त, योग्य बनाना अनुग्रह है।), सूत्र के अर्थ में विशारद, कीर्ति से प्रसिद्धि को प्राप्त, ग्राह्य और आदेय वचन बोलनेवाला (कथित मात्र को ग्रहण करने वाला अर्थात् गुरु ने कुछ कहा तो 'यह ऐसा है' इस प्रकार के भाव से उन वचनों को ग्रहण करना ग्राह्य है और प्रमाणीभूत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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