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________________ १२६ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन ‘एक समय कोई भिक्षु कौशल के वनखण्ड में विहार करता था। उस समय वह भिक्षु पहले स्वाध्याय में लगा रहता था- उत्सुकता रहित हो चुपचाप अलग बैठा रहता था। तब उस वन में रहनेवाले देवता उस भिक्षु के धर्मपठन को न सुनकर भिक्षु के पास आये और बोले भिक्षु! क्यों आप उन धर्मपदों को, भिक्षुओं से मिलकर नहीं पढ़ा करते हैं? धर्म को पढ़कर मन में सन्तोष होता है, बाहरी संसार में भी उसकी बड़ी बड़ाई होती है। भिक्षु बोला - पहले धर्मपदों को पढ़ने की ओर मन बढ़ता था, जब तक वैराग्य नहीं हुआ, जब पूरा वैराग्य चला आया, तो संत लोग देखे-सुने आदि पदार्थों को जानकर त्याग कर देना कहते हैं।'१०४ स्वाध्याय करने से मन की शान्ति के साथ-साथ इस दुःखमय संसार के प्रति वैराग्य की भावना उत्पन्न होती है। 'जातक' में एक आचार्य के बारे में वर्णन आया है कि पहले तो वे ब्रह्मचर्याश्रम में रहकर वेद पढ़ते और पढ़ाते थे। प्रथम आश्रम का त्याग करके गृहस्थाश्रम के चक्कर में फंसे। स्वाध्याय की गड़बड़ी पैदा हो गयी और वेदों का तत्त्वार्थ उन्हें अरुचिकर लगने लगा। वे भगवान् बुद्ध की सेवा में अपनी व्यथा सुनाने आये। भगवान् ने उन्हें फिर से अरण्यवासी होने की सलाह दी। गृहस्थाश्रम में रहते हुए वे स्वस्थ चित्त से वेदाध्ययन नहीं कर सकते थे और बिना स्वाध्याय किये तत्त्वार्थ का बोध असम्भव था।१०५ अत: स्वाध्याय अपने आप में एक तप है जिसके द्वारा इन्द्रियाँ संयमित रहती हैं तथा ज्ञान-विज्ञान का विकास होता है और शिक्षार्थी अपने कार्यपथ पर अग्रसर होते हैं। १. तुलना जैन एवं बौद्ध दोनों ही शिक्षण प्रणालियों में पाठ-विधि के द्वारा शिक्षारम्भ कराये जाने का विधान है। जैन परम्परा काष्ठ की किसी भी पट्टिका पर पाठ-विधि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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