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११० जैन एवं बौद्ध शिक्षा दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
उपमान- सादृश्यता के आधार पर वस्तु को ग्रहण करना उपमान है। उपमा दो प्रकार की होती है- साधर्म्यापनीत और वैधम्र्म्यापनीत । २१ समानता के आधार पर जो उपमा दी जाती है उसे साधर्म्यापनीत कहते हैं तथा दो अथवा अधिक पदार्थों में जिसके द्वारा विलक्षणता बतलाई जाती है उसे वैधम्योंपनीत कहते हैं।
परोक्ष के पाँच भेद बताये गये हैं- स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और
आगम।
स्मृति - संस्कार के जागृत होने पर भूतकाल में प्रत्यक्ष द्वारा जानी हुई किसी वस्तु को याद करना स्मृति है । माणिक्यनन्दी के अनुसार संस्कार की जागृति से 'तत्' ( वह) आकारक ज्ञान स्मृति है । २२
प्रत्यभिज्ञान- अनुभव और स्मरणपूर्वक होनेवाले संकलनात्मक ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । २३ दो वस्तुओं में पारस्परिक एकता, सादृश्यता, विलक्षणता आदि के व्यवहार का ज्ञान प्रत्यभिज्ञान से होता है। प्रत्यभिज्ञान के दो प्रकार होते हैं- एकत्वप्रत्यभिज्ञान और सादृश्यप्रत्यभिज्ञान।' | २४ वर्तमान का प्रत्यक्ष करके उसी के अतीत का स्मरण होने पर 'यह वही है', इस प्रकार एकता या एकरूपता का ज्ञान होना एकत्वप्रत्यभिज्ञान कहलाता है। इसी प्रकार पूर्व ज्ञात अर्थ के समान अन्य अर्थ का प्रत्यक्ष होने पर यह कहना कि 'यह उसके सदृश है' सादृश्यप्रत्यभिज्ञान है । जैसे- गाय के समान गवय होता है । इस वाक्य के आधार पर गाय के समान पशु का अवलोकन करके यह निश्चय करना कि यह गवय है।
तर्क - साधन का साध्य के होने पर ही घटित होना और साध्य के अभाव की स्थिति में घटित न होना ही तर्क है। जितना भी धूम है वह अग्नि से उत्पन्न होता है उसके अभाव में नहीं। इस प्रकार सकल देश एवं सकल काल की व्याप्ति से साध्य एवं साधन के सम्बन्ध का जो ऊहापोह ज्ञान होता है वह तर्क है । २५ (ग) नय - विधि
किसी भी विषय का सापेक्ष निरूपण करने वाला विचार नय कहलाता है। इस विधि के द्वारा वस्तु के स्वरूप का आंशिक विश्लेषण करके ज्ञान कराया जाता है। नय के दो भेद किये गये हैं- ( १ ) द्रव्यार्थिक नय, (२) पर्यायार्थिक नय ।
मनुष्य की बुद्धि कभी वस्तुओं के सामान्य अंश की ओर झुकती है तो कभी विशेष अंश की ओर। जब वह सामान्य अंश को ग्रहण करती है तब उसका वह विचार द्रव्यार्थिक नय कहलाता है और जब वह विशेष अंश को ग्रहण करती है, तब उसका
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