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________________ १०८ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन को परोक्ष तथा अवधिज्ञान, मन:पर्यायज्ञान और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष बतलाया है। प्रमाण को दो भागों में विभक्त कर उनका पंचज्ञान के साथ सम्बन्ध जोड़ना जैन दर्शन में उमास्वाति द्वारा किया गया नया मोड़ है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि जैन शिक्षण-पद्धति में प्रमाण-विधि का प्रवेश ३री-४थी शताब्दी में हआ। जैन श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार जैन न्याय के अधिष्ठाता के रूप में सिद्धसेन दिवाकर का नाम आता है। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा के अनुसार समन्तभद्र जैन न्याय के अधिष्ठाता थे। सिद्धसेन की प्रमुख रचना 'न्यायावतार' है जिसमें उन्होंने प्रत्यक्ष, परोक्ष, अनुमान और उसके अवयवों का अपने ढंग से विवेचन किया है। प्रमाण को परिभाषित करते हुये उन्होंने कहा है कि प्रमाण उस ज्ञान को कहते हैं जो स्व के साथ-साथ पर को भी जान सके। इतना ही नहीं, बल्कि उसका खण्डन भी किसी अन्य ज्ञान के द्वारा न हो सके। सिद्धसेन के पश्चात् जैन न्याय का विकसित रूप अकलंक के दर्शन में देखने को मिलता है। मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) के अनुसार आचार्य सिद्धसेन के 'न्यायावतार' में प्रत्यक्ष, परोक्ष, अनुमान और उसके अवयवों कि चर्चा प्रमाणशास्त्र की स्वतंत्र रचना का द्वार खोल देती है। फिर भी उसकी आत्मा शैशवकालीन-सी लगती है। इसे यौवनश्री तक ले जाने का श्रेय दिगम्बर आचार्य अकलंक को है। प्रमाण को परिभाषित करते हुये कहा है- प्रमाण को अविसंवादी तथा अनधिगतार्थ होना चाहिये। ज्ञान को अविसंवादी बताकर अकलंक ने पूर्वमान्य प्रमाण परिभाषाओं को एक नवीनता प्रदान की। अकलंक के अनुसार प्रमाण के मुख्यत: दो भेद हैं- (१) प्रत्यक्ष और (२) परोक्ष। प्रत्यक्ष के भी दो भेद किये गये हैं- (१) सांव्यावहारिक या इन्द्रिय प्रत्यक्ष, (२) मुख्य (पारमार्थिक) या सकल प्रत्यक्षा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की श्रेणी में मतिज्ञान आता है और मुख्य प्रत्यक्ष की श्रेणी में अवधि, मन:पर्याय और केवलज्ञान आता है। चूँकि व्यवहार में इन्द्रिय और मन से प्राप्त होनेवाले ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान माना जाता है, संभवत: यही कारण है कि अकलंक ने प्रत्यक्ष को मुख्य और सांव्यवहारिक रूपों में विभाजित किया है। प्रमाण का एक विभाजन 'अनुयोगद्वारसूत्र' में प्राप्त होता है। इसमें ज्ञान को चार भागों में विभाजित किया गया है- प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमाना प्रत्यक्ष- इसके स्वरूप के विषय में पूर्व में विचार किया जा चुका है। अनुमान- साधन से साध्य का ज्ञान होना अनुमान है। जैसे- धुंआ को देखकर अग्नि की उपस्थिति का ज्ञान होना। दूसरे शब्दों में लिङ्ग ग्रहण और व्याप्ति स्मरण के पश्चात् होनेवाला ज्ञान अनुमान कहलाता है। साधन से साध्य नियत ज्ञान अविनाभाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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