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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् गोपुच्छोत्थितदीपमश्मकुहरक्रोडप्रलुप्तोल्वण
व्यालं दर्दुरदाहधूमविधुरं कात्यायनीमन्दिरम् ।। (ब) कात्यायनी देवी का स्वरूप
नेत्र-श्रोत्र-वरौष्ठ-बाहु-चरण-घ्राणादिभिः प्राणिनां,
___ मन्त्रैः क्लप्तबलिर्वसारसकृतस्नानाऽन्त्रमालार्चिता। कण्ठस्थोरगलिमानबहलप्लीहाङ्गरागा गल
द्रक्ताऽऽनिरेन्द्रकृत्तिरसनोत्तंसा मृडानी पुरः।। भगवती कात्यायनी का यह मन्दिर ऐसा है जिसके ध्वज-स्तम्भ के चारों तरफ (बलिपशु के) मुण्ड लटकर रहे हैं, द्वार (बलि दिये गये पशुओं की खून से सनी हुई अतएव) चिपचिपी आंतडियों की माला से सुशोभित है और आन्तरिक भाग खून के कीचड़ से परिपूर्ण आङ्गन में मस्ती से घूमने वाली बिल्लियों के कारण अत्यन्त भयङ्कर है। इस मन्दिर के दीपस्तम्भों पर गोपुच्छाकार लौ वाले दीपक जल रहे हैं, पत्थरों (से बनी दीवारों) के छिद्रों में भयङ्कर (विषैले) साँप छिपे हुए हैं और नगाड़ों को तपाने हेतु जलायी गयी आग के धुएँ से यह मलिन (धूमिल) हो गया है। पुन: भगवती कात्यायनी के स्वरूप का चित्रण करते हुए वे लिखते हैं- भगवती कात्यायनी सामने दिखाई पड़ रही हैं। इन्हें पशुओं के नेत्र, श्रोत्र, प्रशस्त ओष्ठ, भुजा, घ्राण आदि अङ्ग मन्त्रोच्चारपूर्वक बलिरूप में समर्पित हैं, ये चर्बी के रस से गीली आँतड़ियों की माला से सुशोभित हैं, इनके शरीर पर तिल्लियों (प्लीहा) का अत्यधिक अङ्गराग (उबटन), जिन्हें गले में लिपटे हुए साँप चाट रहे हैं, लगा हुआ है और ये टपकाते हुए रक्त से अत्यन्त गीले गजचर्म की करधनी रूपी आभूषण से सुशोभित हैं। कामदेव के मन्दिर का स्वरूप स्फूर्जद्यावकपङ्कसङ्क्रमलसन्मध्यं जपासोदरै
दुष्यैः क्लुप्तपताकमानकिसलैस्ताम्रीभवत्तोरणम् । कौसुम्भैर्घटितावचूलमभितो मत्तालिभिर्दामभिः,
सिन्दूरारुणिताङ्गणं गृहमिदं देवस्य चेतोभुवः।। यह भगवान् कामदेव का मन्दिर है, जिसका आन्तरिक भाग चमकीले अलक्तक (महावर) के रस के प्रसार से चमकीला हो गया है, जिसके शिखर पर ८. यही पुस्तक, पृ० ६६-६७। ९. यही पुस्तक, पृ० ६८।
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