________________
दशमोऽङ्कः
१९१
सिद्धाधिनाथ: - कौमुदीमपहर्तुं भ्राम्यन्नहं तदानीं पाशपाणिना विडम्बितः । भवान् घातहेतुश्चायं मकरन्दः कौमुदी - सुमित्रानुरागिणा मयाऽस्मिन्नग्निकुण्डे कामदेवपुरतो व्यापादयितुं गवेषितः । इयं च स्वयं त्वया पुरः कौमुदी समासादिता । इदानीं पुनर्मयोपनीता ।
पुरुष :- यो मया प्रवहणभङ्गादारभ्य क्लेशोऽनुभूतस्तस्य सर्वस्य युष्मत्प्रसादेन पर्यन्तः समजनि । तदिदानीं समित्र - कलत्र- स्वापतेयं मामुपनयत कौतुकमङ्गलनगरम्।
सिद्धाधिनाथ: - इयतोऽप्यर्थस्य का नाम प्रार्थना? समादिश किमपरं ते प्रियमादधामि ?
पुरुष:- अतः परमपि किमपि प्रियमस्ति ?
सिद्धाधिनाथ:- तथापीदमस्तु
-
सिद्धाधिनाथ— उस समय (वरुणद्वीप में) कौमुदी के अपहरण हेतु घूमता हुआ मैं पाशपाणि द्वारा छला गया। कौमुदी एवं सुमित्रा में अनुरक्त मैंने आपको और मकरन्द को कामदेव के समक्ष इस अग्निकुण्ड में मारने हेतु खोजा और यह कौमुदी स्वयं ही आपके सम्मुख उपस्थित हो गयी थी। इस समय मैं पुनः इसको यहाँ ले आया हूँ।
पुरुष - नौका डूबने से लेकर अब तक हम लोगों ने जो कष्ट सहन किया, उन सबका आपकी कृपा से अन्त हो गया। अतः अब मुझे अपने मित्र, पत्नी एवं सम्पत्ति सहित कौतुकमङ्गलनगर पहुँचा दीजिए।
सिद्धाधिनाथ - यह तो बहुत छोटा सा कार्य है। अपने किसी और प्रिय कार्य का आदेश दीजिए जिसे मै सम्पादित करूँ ।
पुरुष - इस (प्रियजनों के मिलन) से भी अधिक प्रिय कुछ हो सकता है
क्या ?
सिद्धाधिनाथ - तथापि यह हो
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org