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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् द्रुहिण-हरि-हरोपजप्यनाम्नः,
प्रणम मृगाक्षि! मनोभवस्य मूर्तिम्।।१३।। आत्रेयी- (उत्थाय प्रणम्य च सविनयम्) भयवं कुसुमबाण! पसीअ उवणेहि पिअंजणं, अहं ते पुरिसेण बलिं करिस्सं।
(भगवन् कुसुमबाण? प्रसद्योपनय प्रियं जनम्। अहं ते पुरुषेण बलिं करिष्ये।)
(नेपथ्ये) भद्रे! स्वयं सन्निहिते भर्तरि किं भर्तारमर्थयसे?
आत्रेयी- कथमेस सयं भयवं पंचबाणो जंपेदि? (पुनर्विलोक्य) कथं सयं सयंवरमालं सिद्धणाहस्स कंठे निक्खिवेदि?
(कथमेष स्वयं भगवान् पञ्चबाणः जल्पति? कथं स्वयं स्वयंवरमाला सिद्धनाथस्य कण्ठे निक्षिपति?)
(सर्वे सविस्मयमवलोकयन्ति।) सिद्धाधिनाथ:- (सविस्मयमात्मगतम्) कथमिदं तदेव त्रिलोकीकामिनीजनमनःक्षोभैकहेतु.वेयकमुपनीतं भगवता पञ्चबाणेन? (पुनरपवार्य) लम्बस्तनि! स्त्रियों के (केशपाश में ग्रथित) पुष्पों से गिरे हए परागकण से रञ्जित (शोभित) चरणकमलों वाली मूर्ति को प्रणाम करो।।१३।।
__ आत्रेयी- (उठकर और प्रणाम कर विनयपूर्वक) भगवन् कामदेव! प्रसन्न होकर मेरे पति को मुझसे मिलवा दीजिए। मैं आपको पुरुष-बलि प्रदान करूँगी।
(नेपथ्य में) भद्रे! स्वयं पति के समीप उपस्थित होते हुए भी पति के लिए प्रार्थना क्यों कर रही हो?
आत्रेयी- क्या ये स्वयं भगवान् कामदेव बोल रहे हैं? (पुन: देखकर) क्या स्वयं ही स्वयंवरमाला को सिद्धनाथ के गले में डाल रहे हैं?
(सभी आश्चर्य से देखते हैं।) सिद्धाधिनाथ- (आश्चर्यपूर्वक मन ही मन) क्या भगवान् कामदेव ने त्रिलोक की कामिनियों के मनःक्षोभ की एकमात्र कारणभूता वही माला प्रदान की
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