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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् नरदत्त:- देव! इलादत्ताभिधानो मे भागिनेयः, ततः सुवर्णद्वीपस्थितेन मया सोमपरिवेषपर्वणि सम्पुटानां शतमष्टोत्तरं तन्नामाङ्कितं कृतम्। अत्राप्यर्थे पौरलोकः प्रमाणम्।
(युवराजो वणिजां मुखान्यवलोकयति।) वणिज:- अस्तीलादत्ताभिधानो नरदत्तभागिनेयः।
युवराजः- (साक्षेपं मकरन्दं प्रति) अरे दाम्भिक! कूटप्रयोगैरस्माकं वणिजां च दुष्कीर्तिमुत्पादयसि?
मकरन्द:- (सावष्टम्भम्) उपायनीकृतरत्नानां प्रभावातिशयं नरदत्तमापृच्छतु देवः।
युवराज:- नरदत्त! कस्य रत्नस्य कः प्रभावातिशयः?
नरदत्तः- (सक्षोभम्) देव! सर्वाण्यपि रत्नानि सप्रभावाणि, परं न कदाचिदपि निरूपितप्रत्ययानि।
युवराजः- (नरदत्तं प्रति) यदि त्वदीयानि रत्नानि तदा निस्सन्देहमभिदधीथाः।
नरदत्त- देव! इलादत्त नाम का मेरा भागिनेय है, इसीलिए सुवर्णद्वीप में सोमरस-वितरण के अवसर पर मैंने एक सौ आठ स्वर्णपेटियों पर उसका नाम अङ्कित करवा दिया। इस विषय में भी नगरवासी ही प्रमाण हैं।
(युवराज व्यापारियों का मुँह देखते हैं।) व्यापारीगण- हाँ, नरदत्त का इलादत्त नामक भागिनेय है।
युवराज- (क्रोधपूर्वक मकरन्द से) अरे पाखण्डी! जालसाजी करके मेरा और व्यापारियों का अपयश फैला रहे हो?
मकरन्द-(दृढ़तापूर्वक) आप नरदत्त से उपहार में दिये गये रत्नों के प्रभाव के विषय में पूछे।
युवराज– नरदत्त! किस रत्न का क्या प्रभाव है?
नरदत्त- (बैचेनी के साथ) देव! सभी रत्न प्रभावशाली हैं, किन्तु कभी भी इनका परीक्षण नहीं किया गया है।
युवराज-(नरदत्त से) यदि तुम्हारे रत्न होते तो तुम अवश्य बतला देते। १. भाग्नेयः ख।
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