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________________ १५८ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् नरदत्त:- अहमपि निरपत्यः, भ्रातैव मे अपत्यम्। तदस्यैव नाम्ना क्रेयं च वस्तु, अयं च मकरन्दाभिधानः। अत्र चार्थेऽमात्यः पौरलोकश्च प्रमाणम्। चारायणः-देव! अयमुपायनभाजनवाही भ्राताऽस्य मकरन्दाभिधानः। युवराजः- कोऽत्र भोः? (प्रविश्य) प्रतीहार:- आदिशतु देवः। युवराज:- कियतोऽपि वणिजः समाह्वय। (प्रतीहारो निष्क्रान्तः।) (प्रविश्य कृतोष्णीषा पञ्चषा बणिज: प्रणमन्ति) युवराज:- तातस्य विक्रमबाहोराज्ञा भवतां यदपक्षपातेन वदत। ततः कथयत को नरदत्तस्य भ्राता? किमभिधानश्च? नरदत्त- मैं भी निःसन्तान हूँ, भाई ही मेरी सन्तति है, अत: इसी के नाम से वस्तुएँ खरीदता हूँ और इसका ही नाम मकरन्द है। इस विषय में अमात्य और नगरवासी प्रमाण हैं। चारायण- देव! यह उपहारपात्र लाने वाला ही इसका मकरन्द नामक भाई है। युवराज- अरे! यहाँ कौन है? (प्रवेश कर) प्रतीहार- युवराज आज्ञा दें। युवराज- कुछ व्यापारियों को बुलाओ। (प्रतीहार निकल जाता है।) (पाँच छ: पगड़ीधारी व्यापारी प्रवेश करके प्रणाम करते हैं।) युवराज-पिता विक्रमबाहु की आज्ञा है कि आप सब निष्पक्षभाव से उत्तर दें। अत: आप सब बतलावें कि (यहाँ पर) नरदत्त का भाई कौन है? और उसका क्या नाम है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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