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७. प्रथम और चतुर्थ दोनों पादों में ८. द्वितीय और चतुर्थ दोनों पादों में ६. तृतीय और चतुर्थ दोनों पादों में
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समग्र मेघदूत की पादपूर्ति होने के कारण पार्श्वभ्युदय में किसी भी पूरणीय पाद का कोई नियत स्थान नहीं है । अतः श्लोकों के अन्त में (चतुर्थपाद में) मेघदूत के श्लोकों के चतुर्थ पाद के साथ-साथ अन्य पाद भी क्रमानुसार आते रहते हैं। इस के विपरीत उत्तरवर्ती पूर्तिकाव्यों में मेघदूत के श्लोकों के चतुर्थ पाद को अनिवार्य रूप से श्लोकों के चतुर्थ पाद के रूप में ही रखने की पद्धति दिखाई देती है। इन परवर्ती पूर्ति काव्यों में रचनासरणि के आधार पर तीन विशेषतायें समान रूप से प्राप्त होती हैं
१. मेघदूत के सभी पादों की पूर्ति नहीं की गई है। २. श्लोकों के चतुर्थ पाद की ही पूर्ति की गई है।
३. मेघदूत के श्लोकों के चतुर्थ पाद को श्लोकों के अन्त में ही रखा गया
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शीलदूतम्
इस प्रकार केवल पादपूर्त्यात्मक काव्यों की दो शैलियां हैं। प्रथम शैली में मेघदूत के समस्त श्लोक-पादों की पूर्तियां की गई हैं और द्वितीय शैली में केवल प्रत्येक श्लोक के चतुर्थ पाद की पूर्ति है। पूर्वोक्त पार्श्वाभ्युदय प्रथम शैली का उत्कृष्ट निदर्शन है और अपनी पद्धति का एक मात्र उपलब्ध ग्रन्थ है । द्वितीय शैली में रचित दो काव्य उपलब्ध हैं मिदूत और शीलदूत |
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मदूत की कथा वस्तु तीर्थंकर नेमिनाथ से सम्बन्धित है । नेमिनाथ अपनी भावी - पत्नी राजीमती को विवाह - मण्डप में ही छोड़कर रैवतकपर्वत पर योगाभ्यास और तप करने लगते हैं। राजीमती पाणिग्रहण के पूर्व परित्यक्त होने पर भी नेमिनाथ को अपना पति मानती हैं। वह अपनी सखी के साथ रैवतकपर्वत पर जाती हैं और उनसे गृहस्थाश्रम में लौट कर सुखमय दाम्पत्य जीवन व्यतीत करने के लिये प्रार्थना करती हैं। राजीमती के द्वारा विषय-भोग के लिये विविध प्रकार से प्रेरित किये जाने पर भी जब नेमिनाथ द्रवीभूत नहीं होते तब उसकी सखी उनसे विनम्र निवेदन करती है। वह राजीमती की असह्य विरह वेदना का हृदयद्रावक वर्णन करती हुई नेमिनाथ के मन में दया भाव उत्पन्न करने का प्रयास करती है । अन्त में नेमिनाथ धर्मोपदेश देकर राजीमती को मोक्षमार्ग पर चलने के लिये अपनी सहचरी बना लेते हैं ।
इस काव्य में दौत्य और सन्देश प्रेषण का अभाव है । प्रस्तुत काव्य शीलदूत इस श्रृंखला का तृतीय काव्य है इसमें मेघदूत के श्लोकों के चतुर्थ पादों की पूर्तियां की गई हैं। दूत कल्पना और सन्देश - प्रेषण का नितान्त अभाव होने के कारण इसका स्वरूप भी केवल पादपूर्त्यात्मक
है ।
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इस कमनीय काव्य के रचयिता चारित्र सुन्दर गणि हैं । कवि ने काव्य के अन्त में ग्रन्थ का रचनाकाल इस प्रकार दिया है।
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द्रड्गे रङ्गैरतिकलतरे स्तम्भतीर्थाभिधाने
वर्षे हर्पाज्जलधि' भुजगाम्योधि चन्द्र' प्रमाणे ।
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