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________________ निर्यद्वाष्पं वच इति घिरं प्रोच्य तस्यां स्थितायां सोऽवोचत् तामभजममलं तन्व्यहं जैनधर्मम् । स्वर्गोऽप्यस्माद् मम स न मतश्चिन्तितं यत्र दत्ते हस्तप्राप्यस्तबकनमितो बालमन्दारवृक्षः ।।२।। ८२. जब इस प्रकार अश्रुसहित कहती हुई कोशा चुप हो गई तब उस (स्थूल- भद्र) ने उस से कहा -- कृशांगि ! मैने निर्मल जैन धर्म स्वीकार कर लिया है। इस धर्म के अतिरिक्त उस स्वर्ग की भी मैं कल्पना नहीं करता जहाँ हाथ से मिलने वाले गुच्छों से झुका हुआ लघु कल्पवृक्ष मनोवांछित मनोरथ प्रदान करता है। कृत्याकृत्यं गणयति भवान् हन्त ! येषां कृते नो दृष्ट्वा हृष्यत्यनुदिनमलं खिद्यते यानऽदृष्ट्वा । प्रान्तं प्राप्तं स्वजननिचयास्तेऽप्यहो! सत्सरोवद् न ध्यास्यन्ति व्यपगतशुधस्त्वागपि प्रेक्ष्य हंसाः ।।४।। ८३. (कोशोक्ति) आप जिनके लिये कृत्य और अवृत्य की गणना नहीं करते थे, जिनको देख कर प्रसन्न हो जाते थे और जिन्हें न देखकर अत्यधिक दुःखी हो जाते थे वे ही स्वजन-समूह निकट पहुँचा हुआ देख कर भी शोक- रहित होकर आप पर उस प्रकार ध्यान नहीं देंगे जिस प्रकार हंस सुन्दर सरोवर पर ध्यान देते हैं। निःसंगानां गुणफणभृतां यो मया श्रीगुरुणामेवं मुग्धे! भवभयहरोऽश्राविपुण्योपदेशः । हारेणेव घुतिततिभृताऽप्यत्र शश्वद् मनोऽन्तः प्रेक्ष्योपान्तस्फुरिततडितं त्वां तमेव स्मरामि ।।४।। ८४. (स्थूल भद्रोक्ति) मुग्धे ! मैं अनेक श्रेष्ठ गुणों को धारण करने वाले अनासक्त गुरुदेव का भवभयहारी उपदेश सुन चुका हूँ। ( अतः ) प्रकाश-खा को धारण करने वाले हार के कारण यहाँ निकट स्फुरित बिजली के समान तुम्हें देख कर भी मैं उसी उपदेश का स्मरण कर रहा जिग्ये कामः सुतनु ! स मया शीलमासाद्य यस्मात् संज्ञाहीनौ रसकुरुवकावण्यहो! स्तः सरागौ। नार्या एकोऽभिलषति भृशं दर्शनं मण्डिताया वाञ्छत्यन्यो वदनमदिरां दोहदाछद्मनाऽस्याः ।।५।। ८५. हे सुतनु ! शील (ब्रह्मचर्य) को प्राप्त कर मैंने उस काम को जीत लिया है। अतः वासना-युक्त रस (प्रेम) और रक्ताभ कुरबक-दोनों निष्प्राण हो चुके हैं। उन दोनों में एक (रस) विभूषित नारी का अति दर्शन चाहता है तो दूसरा (कुरवक) दोहद (पुष्पोद्गम के समय की इच्छा) के व्याज से उस (नारी) के मुख से गिराई हुई मदिरा। नीरागं मे समजनि मनो ज्ञाततत्त्वस्वरूपं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002079
Book TitleShildutam
Original Sutra AuthorCharitrasundar Gani
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages48
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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