SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सोपानत्वं कुरु मणितटारोहणायाग्रयायी।।६४॥ ६४. हे सुभग ! इस पर्वत पर संसार का भय दूर करने वाले ब्रह्मा ( अथवा ऋषभदेव) को नमस्कार करने के पश्चात् कौतुक देखियेगा। मणि-शिखर पर चढ़ने के लिये जब आप आगे-आगे चलेंगे तब आप का अनुकरण करते समय मेरा मार्ग सुगम करते हुये सोपान (सीढ़ी) बन जाइयेगा। श्रृंगे तस्मिन् नयनसुभगं धारुरूपा यदि त्वां विद्याधर्यः स्मरविधुरिताः प्रार्थययुनिरीक्ष्य। अक्षोभ्यस्त्वं सुरयुवतिभिनय ! धिक्कारवाचा क्रीडालोलाः श्रवणपरूपैगजितैयियेस्ताः ।। ६५।। ६५. हे नाथ ! आप देवताओं की तरुणियों के द्वारा भी क्षुब्ध नहीं हो सकते। उस पर्वत पर नयनों को सुन्दर लगने वाले आप को देख कर यदि काम पीडित विद्याधारिया क्रीडा के लिये चंचल होकर प्रार्थना करें तो धिक्कार के स्वर में कर्णकठोर गर्जना से उन्हें डरा दीजियेगा। आरामेषु प्रिय ! विरघयंस्तत्र पुष्यावचायं श्रान्तो भ्रान्त्या सुभग ! विदधद् दीर्घिकास्वम्बुकेलिम्। वादित्राणां मधुरनिनदैर्नर्तयन् केकिवृन्दं नानाचेष्टेजैलदललितैनिर्विशेस्तं नगेन्द्रम् ।।६।। ६६. हे प्रिय ! हे सुभग ! वहाँ उद्यानों में पुष्प-चयन करते हुये चलते चलते जब आप थक जायें तब जलाशयों में जल-क्रीडा करते हुये वाद्यों के मधुर निनाद से मयूर-वृन्द को नचाते हुये मेघ के समान नाना सुन्दर चेष्टाओं वाली क्रीडाओं से उस पर्वत पर विहार करें। आगच्छे स्वां पुनरपि पुरे नाव ! नीत्वा दिनानि क्रीडाशैले कतिघिदसमां दर्शयन् स्वश्रियं ताम्। यत्राभ्राप्तैर्वहति बहुलैधुपधूमैः सदा धौ मुक्ताजालग्रथितमलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम् ।।६।। ६७. हे नाथ क्रीडापर्वत पर कुछ दिन व्यतीत कर अपनी अतुलनीय शोभा को दिखाते हुये पुनः अपने उस नगर को लौट आयें, जहाँ आकाश वायुमंडल में पहुँचे धूप के प्रचुर धुओं के मेघ-पुंज को यों धारण करता है जैसे कामिनी मुक्ताओं से ग्रथित कुंचित-केश को धारण करती है। स्निग्धच्छायं बहुलविमलच्छायया शालमाना नित्यामोदाः प्रविततमुदं भूरिवित्ताः सुवित्तम्। रत्नज्योतिर्विधुततमसो नाथ ! निधूतापापं प्रासादास्त्वां तुलयितुमलं यत्र तैस्तैर्विशेषैः ।।६।। ६८. हे स्वामी ! जहाँ समान विशेषताओं के द्वारा प्रचुर निर्मल छाया (छाह) से परिपूर्ण, नित्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002079
Book TitleShildutam
Original Sutra AuthorCharitrasundar Gani
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages48
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy