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और मेरे साथ जल-क्रीडा करेगे तो उन के घुले हुये प्रचुर मृगमद (कस्तूरी) और काजलों से इस की ऐसी शोभा होगी जैसे बिना स्थान (प्रयाग) के ही वह यमुना से मिल गई है।
क्रीडां तत्र त्वयि रघयति प्रीतचित्ते नितान्तं स्वर्णोच्छंगीनिहित सलिलक्षेपणाधर्विनोदैः। रोधः क्षुण्णं तव हयखुरैर्लप्स्यते नाथ ! तस्याः
शोभा शुभ्रत्रिनयनवृषोत्खातपंकोपमेयाम्।। ५६ ।। ५६. हे नाथ ! वहाँ जब आप प्रसन्न- चित्त होकर स्वर्णिम पिचकारी में निहित जल के क्षेपण (फेकने) आदि विनोदों के द्वारा क्रीडा करेंगे तब आप के अश्वों के खुरों से भग्र उस (गंगा) का तट, शिव के श्वेत बैल से विदारित पंक के समान शोभा को प्राप्त कर लेगा।
धर्मेष्वाद्यामिह खलु दयामादिदेवो जगाद प्रोज्झन्नेतां निजपरिजने वेत्सि धर्म न सम्यक् । सीदन्तं तन्निजजनममुं पालय स्वार्जितैः स्वै
रापन्नातिप्रशमनफलाः संपदो युत्तमानाम् ।। ५७।। ५७. आदिदेव (ऋषभदेव) ने दया को आदि धर्म बताया है। क्या आप अपने परिजन को छोड़ते हुये उस दया को सम्यक् नहीं समझते है ? अतः अपने द्वारा अर्जित धन से अपने दुःखी लोगों का पालन कीजिये, क्योंकि महान् लोगों की सम्पत्ति दुःखी लोगों का दुःख शान्त करने के लिये ही होती है।
आसाघेदं निजपितृपदं पालयिष्यत्यसौ नो नूनं चित्ते सचिवसुहृदो ये विचार्येति तस्थुः। प्राप्ते दीक्षां भवति बत ! तानाक्रमिष्यन्त्यमित्राः
के वा न स्युः परिभवपदं निष्फलारम्भयत्नाः ?।५८॥ ५८. "अपने पिता के पद को प्राप्त कर वह निश्चय ही हमारा पालन करेगा।" इस प्रकार विचार करके मित्र-मन्त्री बैठे थे, खेद है, वे सभी आप के दीक्षा ले लेने पर शत्रुओं के द्वारा आक्रान्त हो जायेंगे, क्योंकि निष्फल कार्य को प्रारम्भ करने वाले कौन (लोग) तिरस्कार के पात्र नहीं बन जाते।
मा जानीष्व त्वमिति मतिमन् ! यद् व्रतेनैव मुक्तिलेंभे श्वभ्रं व्रतमपि चिरं कण्डरीकः प्रपाल्य। गार्हस्थ्येऽपि प्रिय ! भरतवद्धीतरागादिदोषाः
संकल्पन्ते स्थिरगुणपदप्राप्तये श्रद्दधानाः ।।५।। ५६. हे बुद्धिमान् ! आप ऐसा मत समझिये कि व्रत से मुक्ति मिलती है। चिरकाल तक व्रत करने पर भी कण्डरीक पतन के गर्त में गिर गया था। हे प्रिय ! गृहस्थाश्रम में भी भरत चक्रवर्ती के समान वीतराग एवं दोषरहित श्रद्धावान् लोग समत्व पद की प्राप्ति में समर्थ होते हैं।
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