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शीलदूतम्
८. सुन्दर स्वभाव वाली, अपने प्रिय का अनुगमन करने वाली तथा अपनी माँ के द्वारा विविध वचनों से रोकी गई उस कोशा ने इस प्रकार विचार किया - हाय मेरे समान पराधीन न रहने वाली ऐसी कौन (स्त्री) होगी जो अपने प्रिय के दूर चले जाने पर भी घर में स्क सके।
प्राप्तं द्वारि प्रियतममथो वीक्ष्य सोचे प्रमोदा
देवोत्तुंगं भज निजगृहस्यैनमायं गवाक्षम् । स्त्रिग्धच्छायं घनमिव जनानन्दनं यत्र संस्थं
सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः ।।६।। ६. इसके पश्चात् वह कोशा प्रियतम को अपने द्वार पर आया देख कर हर्ष से बोली -- हे देव! आप अपने गृह के श्रेष्ठ एवं उन्नत गवाक्ष को ग्रहण करें, जहाँ आकाश में घनी छाया वाले मेघ के समान मनुष्यों को आनन्दित करने वाले और नेत्रों को सुन्दर लगने वाले आप की सेवा बलाकायें करेंगी।
अध श्वो वा सखि ! तव वरः स्थूलभद्रः समेता स्वस्थं तस्मात् कुरू निजमनो मुंच मुग्धे ! विषादम्। दघे प्राणानहमिति सखीभाषितैनथि ! वाssशा
सद्यः पाति प्रणयिहृदयं विप्रयोगे रुणद्धि ।। १०।। १०. "हे सखिः तुम्हारे पति स्थूलभद्र आज या कल तक आ जायेंगे। अतः हे बावरी ! अपने मन को स्वस्थ रखो, खिन्नता का त्याग करो" हे नाथ सखियों द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर मैंने प्राणों को धारण किया है क्योंकि प्रिय के विरह में तुरन्त टूट जाने वाले अबलाओं के हृदय को आशा ही रोके रहती है।
स्वामिन्नंगीकुरु परिचितं स्वाधिकारं पुनस्तं भोगान् भुक्ष्व प्रिय ! सह मया साधुवेषं विहाय । दोलाकेलिं किल कलयतः कौतुकात् काननान्तः
संपत्स्यन्ते नभसि भवतो राजहंसाः सहायाः।।११।। ११. हे स्वामी ! आप अपने उस चिर- परिचित अधिकार को पुनः स्वीकार करें। हे प्रिय ! आप साधुवेश का परित्याग कर मेरे साथ विषयभोगों का सेवन करें। जब श्रावण मास में उद्यान के मध्य उल्लासपूर्वक हिंडोले पर क्रीडा करेंगे तब श्रेष्ठ भूपतिगण आप के सहायक होंगे।
पश्य स्वामिन्निजपरिजनं त्वद्यिोगात्तिदीनं हीनं स्थाने जलविरहिते मीनवत्पीनदुःखम्। त्वत्संयोगे मुदितमनसो वीक्षिता यस्य शस्याः
स्नेहव्यक्तिश्विरविरहजं मुंचतो वाष्पमुष्णम् ।।१२।। १२. हे स्वामी ! अपने वियोग की व्यथा से दीन-हीन उस अपने परिजन को देखिये जिस का दुख जल-रहित स्थान में स्थित मीन के समान अत्यधिक बढ़ गया है। आज आप के पुनर्मिलन
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