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करें और जिन प्रदेशों को स्पर्श न करें उनसे प्रति समय एक-एक प्रदेश का अवहरण करते-करते जितने समय में स्पृष्ट और अस्पृष्ट सभी प्रदेशों का अवहरण किया जाता है, उतने समय को एक सूक्ष्म पल्योपम कहते हैं।
सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम - दस कोटा कोटी सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम का एक सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम होता है।
सूक्ष्म द्रव्य पुद्गल परावर्त - जितने समय में समस्त परमाणुओं को औदारिक आदि सातों वर्गणाओं में से किसी एक वर्गणा रूप से ग्रहण करके छोड़ देता है।
सूक्ष्म भाव पुद्गल परावर्त - जितने समय में एक जीव अपने मरण के द्वारा अनुभाग बंध के कारणभूत कषाय स्थानों को क्रम से स्पर्श कर लेता है।
स्तिबुकसंक्रम - अनुदयवर्ती कर्म प्रकृतियों के दलिकों को सजातीय और तुल्य स्थिति वाली उदयवर्ती कर्म प्रकृतियों के रूप में बदलकर उनके दलिकों के साथ भोग लेना ।
स्थविर - साधना से स्खलित होते हुए साधकों को पुनः उसमें स्थिर करने वाले। स्थविर तीन प्रकार के होते हैं।
(१) प्रवज्या स्थविर - जिन्हें प्रव्रजित हुए बीस वर्ष हो गए हों।
(२) जाति स्थविर - जिनका वय ६० वर्ष का हो गया हो।
(३) श्रुत स्थविर - जिन्होंने स्थानांग, समवायांग आदि का विधिवत् ज्ञान प्राप्त कर लिया हो।
स्थविर कल्पिक - गच्छ में रहकर साधना करना। तप और प्रवचन की प्रभावना करना । शिष्यों में ज्ञान, दर्शन और चरित्र आदि गुणों की वृद्धि करना । वृद्धावस्था में शारीरिक शक्ति क्षीण होने पर आहार और उपधि के दोषों का परिहार करते हुए एक ही स्थान में रहना ।
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स्थावर - जो जीव स्थावर नामकर्म के उदय से स्थितिशील हैं अर्थात् जो सर्दीगर्मी आदि दुःखों से अपना बचाव करने के लिए चलने-फिरने की योग्यता न रक्खे, उनको स्थावर कहते हैं। इनको सिर्फ स्पर्शेन्द्रिय होती है। इसके दो भेद हैं - (१) सूक्ष्म और (२) बादर ।
स्थितकल्पी - जो अचेलक्य, औद्देशिक, शय्यांतर पिंड, राजपिंड, कृतिकर्म व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मास और पर्यूषण इन दस कल्पों में स्थित हैं।
स्थिति - विवक्षित कर्म के आत्मा के साथ लगे रहने का काल ।
स्थिति घात - कर्मों की बड़ी स्थिति को अपवर्तनाकरण द्वारा घटा देना (जो कर्मदलिक आगे उदय में आने वाले हैं उन्हें अपवर्तना द्वारा अपने उदय के नियत समयों
देना) ।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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