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________________ प्रकृति-बंध - जीव के द्वारा ग्रहण किये गए कर्म - पुद्गलों में भिन्न-भिन्न शक्तियोंस्वभावों का पैदा होना, प्रकृति बंध कहलाता है। अथवा कर्म परमाणुओं का ज्ञानावरण आदि के रूप में परिणत होना । प्रत्तर- श्रेणि के वर्ग को प्रतर कहते हैं। प्रतिशलाकापल्य प्रतिसाक्षीभूत सरसों के दानों से भरा जाने वाला पल्य। प्रत्यक्ष - मन, इन्द्रिय, परोपदेश आदि पद निमित्तों की अपेक्षा रखे बिना एकमात्र आत्मस्वरूप से ही समस्त द्रव्यों और उनके पर्यायों को जानना । प्रत्याख्यानावरणीय जिस कषाय के प्रभाव से आत्मा को सर्वविरति चरित्र प्राप्त करने में बाधा हो, अर्थात् श्रमण (साधु) धर्म की प्राप्ति न हो, उसे प्रत्याख्यानावरणीय कहते हैं। इस कषाय के उदय होने पर एक देश त्याग रूप श्रावकाचार के पालन करने में तो बाधा नहीं आती है, किंतु सर्वत्याग साधु का पालन नहीं हो सकता है। प्रत्येक वनस्पति - जिसके एक शरीर में एक ही जीव हो, उसे प्रत्येक वनस्पति कहते हैं। जैसे पत्ते, केले, सेव, आम आदि। प्रथमस्थिति - अन्तर स्थान के नीचे की स्थिति । प्रदेश - कर्म दलिकों को प्रदेश कहते हैं । पुद्गल के एक परमाणु के अवगाह स्थान की संज्ञा भी प्रदेश है। प्रदेश बंध - जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणु वाले कर्म स्कंधों का संबंध होना, प्रदेश बंध कहलाता है। प्रदेशोदय - जिसके उदय से आत्मा पर कुछ असर नहीं होता है, वह प्रदेशोदय है। अथवा बंधे हुए कर्मों का अन्य रूप से अनुभव होना । अर्थात् जिन कर्मों के दलिक बांधे हैं उनका रस दूसरे भोगे जानेवाले सजातीय प्रकृतियों के निषेकों के साथ भोगा जाए, बद्ध प्रकृति स्वयं अपना विपाक न बता सके। प्रमाणांगुल - उत्सेधांगुल से अढ़ाई गुणा विस्तार वाला और चार सौ गुणा लम्बा प्रमाणांगुल होता है। प्रमाद - आत्मविस्मरण होना, कुशल कर्मों में आदर न रखना, कर्तव्य-अकर्तव्य की स्मृति के लिए सावधान न रहना। प्रयुत- चौरासी लाख प्रयुतांग का एक प्रयुत होता है। प्रयुतांग - चौरासी लाख अयुत के समय को एक प्रयुतांग कहते हैं। प्रायश्चित - साधना में लगे दोष एवं पाप की विशुद्धि के लिए हृदय से पश्चात्ताप करना, प्रायश्चित है। इसके दस प्रकार है- (१) आलोचना - लगे दोष को गुरु था रत्नाधिक के समक्ष यथावत् निवेदन करना (२) प्रतिक्रमण सहसा लगे दोषों के लिए साधक द्वारा स्वतः प्रायश्चित करते हुए कहना कि, "मेरा पाप मिथ्या हो" (३) तदुभय - जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only ५४५ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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