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उपशम कहते हैं। अथवा-आत्मा में कर्म की निज शक्ति का कारणवश प्रगट न होना अथवा प्रदेश और विपाक दोनों प्रकार के कर्मोदय का रुक जाना उपशम है।
उपशमन - कर्म की जिस अवस्था में उदय अथवा उदीरणा संभव नहीं होती है।
उपशम श्रेणी - जिस श्रेणी में मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों का उपशम किया जाता है।
उपशांत कषाय - संपूर्ण मोह कर्म का उपशम करने वाले ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीव को उपशांत कषाय कहते हैं।
उत्सर्ग मार्ग - बाल, वृद्ध आदि श्रमण के द्वारा भी मूलभूत संयम का विनाश न हो, प्रस्तुत दृष्टि से जो शुद्ध आत्म-तत्त्व को साधन भूत अपने योग्य कठोर संयम का आचरण करता है, वह उत्सर्ग मार्ग है। ____ उत्सर्पिणी काल - जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान क्रमशः अधिकाधिक शुभ होते जाएँ, आयु और अवगाहना बढ़ते जाएँ तथा उत्थाण-कर्म-बलवीर्य-पुरुषाकार पराक्रम की वृद्धि होती जाए, वह 'उत्सर्पिणी' काल है। इस काल में पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी क्रमशः शुभ होते जाते हैं। अशुभतम, अशुभतर
और अशुभ भाव क्रमशः शुभ, शुभतर होते हुए शुभतम हो जाते हैं। यह काल १० कोडाकोडी सागरोपम का होता है।
उत्सेधांगुल - आठ यव मध्यों का एक उत्सेधांगुल होता है।
उपासकदशा - जिस अंग में श्रमणोपासकों के अणुव्रत, गुणव्रत, पौषध, उपवास आदि की विधि, प्रतिमा की चर्चा है।
उपांग - अंगों के विषय को स्पष्ट करने वाले श्रुतकेवली या पूर्वधर आचार्यों द्वारा रचे गये आगम। इनकी संख्या १२ है। १) औपपातिक, २) राजप्रश्रीय, ३) जीवाभिगम, ४) प्रज्ञापना, ५)सूर्यप्रज्ञप्ति, ६) जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति, ७) चंद्रप्रज्ञप्ति ८) निरयावलिका, ९) कल्पावतंसिका, १०) पुष्पिका, ११) पुष्पचूलिका और १२) वृष्णिदशा।
उपोद्घात - जिसका प्रयोजन उपक्रम से उद्दिष्ट वस्तु का प्रबोध करना होता है, वह उपोद्घात है।
एकरात्रि प्रतिमा - मुनि द्वारा एक चौविहार अष्टम भक्त में जिनमुद्रा (दोनों पैरों के बीच चार अंगुल का अंतर रखते हुए सम अवस्था में खडे रहना), प्रलम्ब बाहू, अनिमिष नयन, एक पुद्गल-निरुद्ध दृष्टि और झुके हुए बदन से एक रात तक गाँव आदि के बाहर कायोत्सर्ग करना।
__ विशिष्ट संहनन, धृति, महासत्त्व से युक्त भवितात्मा गुरु द्वारा अनुज्ञात होकर इस प्रतिमा को अंगीकार कर सकता है। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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