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________________ (३) तेपनता ४) परिदेवनता रौद्र ध्यान - २) मृषानुबंधी ३) स्तेनानुबन्धी रौद्रध्यान आवेगात्मक अवस्था है। रौद्रध्यान के भी चार भेद किये गये हैं १ ) हिंसानुबंधी १ ) उत्सन्नदोष २) बहुदोष (३) अज्ञानदोष - - एकाग्रता । ४) संरक्षणानुबन्धी परिग्रह के अर्जन और संरक्षण सम्बन्धी तन्मयता । कुछ आचार्यों ने विषयसंरक्षण का अर्थ बलात् ऐन्द्रिक भोगों का संकल्प किया है, जब कि कुछ आचार्यों ने ऐन्द्रिक विषयों के संरक्षण में उपस्थित क्रूरता के भाव को ही विषयसंरक्षण कहा है। स्थानांग में इसके भी निम्न चार लक्षणों का निर्देश है। ४) आमरणान्त दोष आंसू बहाना । करुणा - जनक विलाप करना । अडतालीस १) स्थानांग सूत्र ४/६३ २) वही ४।६४ ३) वही ४।६५ Jain Education International - - निरन्तर हिंसक प्रवृत्ति में तन्मयता करानेवाली चित्त की एकाग्रता । असत्य भाषण करने सम्बन्धी चित्त की एकाग्रता । निरन्तर चोरी करने कराने की प्रवृत्ति सम्बन्धी चित्त की - धर्मध्यान - जैन आचार्यों ने साधना की दृष्टि से केवल धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ही ध्यान की कोटि में रखा है। यही कारण है कि आगमों में इनके भेद और लक्षणों की चर्चा के साथ-साथ इनके आलम्बनों और अनुप्रेक्षाओं का भी उल्लेख मिलता है। स्थानांगसूत्र आदि में धर्मध्यान के निम्न चार भेद बताये गये हैं। हिंसादि किसी एक पाप में निरन्तर प्रवृत्ति करना ! हिंसादि सभी पापों के करने में संलग्न रहना। कुसंस्कारों के कारण हिंसादि अधार्मिक कार्यों को धर्म १ ) आज्ञाविचय - वीतराग सर्वज्ञ प्रभु के आदेश और उपदेश के सम्बन्ध में आगमों के अनुसार चिन्तन करना । मानना । मरणकाल तक भी हिंसादि क्रूर कर्मों को करने का अनुताप न होना। २) अपायविचय - दोषों और उनके कारणों का चिन्तन कर उनसे छुटकारा कैसे हो, इस सम्बन्ध में विचार करना। दूसरे शब्दों में हेय क्या है? इसका चिन्तन करना । · For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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