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________________ प्रत्यक्ष अनुभव का शब्दांकन एवं सफल विवेचन इस प्रबन्ध में ग्रथित करने का सुयश उन्हें प्राप्त हुवा। आज के भौतिक जीवन में मानव-मन अस्थिर हो गया है, आन्तरिक शान्ति नष्ट हो गयी है, जीवन में समाधान दुर्लभ हुवा है। मनःशान्ति के शोध में मानव भटक रहा है। मानसिक सुख एवं शान्ति के लिए अन्तर्मन की शुद्धि की आवश्यकता उसे महसूस हुई है। इसी के लिए ध्यान एवं योग की उपयुक्तता का महत्त्व उसके मन में प्रस्थापित हो गया है। यही कारण है कि आज ध्यान एवं योग पर उपयुक्त साहित्य की मांग देश-विदेश में दिन-ब-दिन बढती जा रही है। . डॉ. प्रियदर्शनाजी का यह शोधनिबन्ध जिज्ञासुओं की पिपासा का शमन करने में सफल हो सकेगा। रत्न जैन ग्रंथालय ने इस प्रबन्ध को प्रकाशित करने का निर्णय लिया। ___'सर्वारम्भास्तण्डुलप्रस्थमूलाः' के अनुसार आर्थिक समस्या दृष्टिगोचर हुई। मार्ग निकल गया। साध्वी प्रियदर्शनाजी के सांसारिक अग्रज पूना निवासी श्री संपतलाल चोपडा की भावना जागी। अपने जन्मदाता माता-पिता के ऋण से उऋण होने का यह सुन्दर मौका हाथ लेने की उनकी धारणा बनी। उनकी प्रशिक्षित सुकन्या कु. विनोदिनी ने अपने पिताश्री का होसला बढाया। और भाई संपतलाल ने अपनी भगिनी के इस शोधप्रबन्ध के संपूर्ण मुद्रण-व्यय का भार उठा लिया। ___ महासतीजी के बन्धुतुल्य भाई कनकमल मुनोत ने ग्रंथनिर्मिति की व्यवस्था अपने माथे ले ली। ग्रंथ का पठन, आवश्यक सुधार, प्रुफ संशोधन एवं सलाहमशविरा आदि में उनका दीर्घकालीन अनुभव इस प्रबन्ध को उपयुक्त बनाने में महामोला सिद्ध हुए। भाईसाहब के कार्यकुशल सुपुत्र श्री प्रदीप मुनोत ने अपने कुशल कर्मचारियों के सहयोग से ग्रंथ सुन्दर एवं आकर्षक बनाने में काफी कष्ट उठाये। उसी प्रकार आवश्यक चित्र चितारने में राजगुरुनगर के सिद्धहस्त चित्रकार पितापुत्रों ने अपनी कला का परिचय दिया। और भी अनेक व्यक्ति एवं कार्यकर्ता सहयोग देते रहें। उपरोक्त सभी स्नेहिल सहयोगियों के हमारी संस्था की ओर से हम आभार प्रदर्शित करते हैं। प. पू. आचार्य आनन्दऋषि दीक्षा जयन्ति १५ दिसंबर १९९१ मानद मंत्री, श्री रत्न जैन ग्रंथालय सोलह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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