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खजुराहो का जैन पुरावन
हाथ नीचे लटक रहा है । इस प्रकार स्पष्ट है कि खजुराहो में मातंग यक्ष का कोई स्वतन्त्र स्वरूप नियत नहीं हो सका। साथ ही ये मूर्तियाँ उपलब्ध शास्त्रीय विवरण से भी मेल नहीं खाती हैं । यद्यपि सिद्धायिका के निरूपण में भी दिगम्बर परम्परा का पालन नहीं हुआ है किन्तु उसके स्वतन्त्र स्वरूप के निर्धारण की चेष्टा अवश्य की गयी है। सिद्धायिका के निरूपण में चक्र एवं शंख जैसे आयुधों का प्रदर्शन चक्रेश्वरी या वैष्णवो का प्रभाव दर्शाता है । द्वितीर्थी जिन मूर्ति
द्वितीर्थी या त्रितीर्थी जिन मूर्तियों से आशय ऐसी मूर्तियों से है, जिनमें दो या तीन जिनों को एक साथ दिखलाया गया है। जैन ग्रन्थों में हमें यद्यपि इस प्रकार की मूर्तियों के उल्लेख नहीं मिलते किन्तु ९ वीं से १२ वीं शती ई० के मध्य सभी क्षेत्रों में, विशेषतः उत्तर भारत के दिगम्बर स्थलों (देवगढ़, खजुराहो) पर ऐसी मूर्तियों के अनेक उदाहरण हैं । सर्वाधिक मूर्तियाँ खजुराहो और देवगढ़ में हैं। इस वर्ग में ऐसी मूर्तियों को नहीं रखा गया है, जिनमें ध्यानस्थ तीर्थंकर के दोनों ओर दो कायोत्सर्ग जिन मूर्तियाँ बनी हैं जैसे पार्श्वनाथ मन्दिर के गर्भगृह की मूर्ति । वस्तुतः इस वर्ग में केवल उन्हीं मूर्तियों को रखा गया है, जिनमें समान विवरणों वाली दो या तीन जिनों की मूर्तियां एक साथ और एक ही मुद्रा में बनी हैं । इन मूर्तियों में सभी जिनों के साथ अलग-अलग अष्टप्रातिहार्य, यक्ष-यक्षी युगल एवं इसी प्रकार अन्य आकृतियां प्रदर्शित की गई हैं। द्वितीर्थी और त्रितीर्थी मूर्तियों में या तो एक ही जिन की या फिर अलग-अलग जिनों की दो या तीन मूर्तियां बनी हैं। अलग-अलग जिनों वाली मूर्तियों का उद्देश्य निश्चितरूप से विभिन्न जिनों को एक साथ और समान प्रतिष्ठा के साथ निरूपित करना रहा है । इस प्रकार इन मूर्तियों को जैन संघाट या संयुक्त मूर्तियों की कोटि में भी रखा जा सकता है।
खजुराहो में द्वितीर्थी मूर्तियों के ९ उदाहरण हैं । एक मूर्ति शांतिनाथ मंदिर के अहाते में और शेष खजुराहो के ही सा० शां० ज० क० एवं पुरातात्विक संग्रहालयों में सुरक्षित हैं । १०वीं से १२वीं शती ई० के मध्य की इन मूर्तियों में अष्टप्रातिहार्य प्रदर्शित हैं । शांतिनाथ मंदिर के अहाते की मूर्ति के अतिरिक्त अन्य किसी भी उदाहरण में लांछन नहीं दिखाया गया है । शांतिनाथ मंदिर की मूर्ति में भी केवल एक ही जिन के आसन पर गज लांछन (अजितनाथ) स्पष्ट है । सभी उदाहरणों में जिन कायोत्सर्ग में निर्वस्त्र खड़े हैं । जिन मूर्तियों में अलग-अलग लांछनों के अंकन की परंपरा के बाद भी द्वितीर्थी मूर्तियों में लांछनों का न उत्कीर्ण किया जाना आश्चर्यजनक है । आठ उदाहरणों में जिनों के साथ द्विभुज या चतुर्भुज यक्ष-यक्षी भी निरूपित हैं । द्वितीर्थी मूर्तियों में दोनों जिनों के साथ समान लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी का निरूपण हुआ है । द्विभुज यक्ष-यक्षी के करों में अभयमुद्रा (या पद्म) और जलपात्र (या फल) प्रदर्शित हैं । ५ उदाहरणों में यक्ष-यक्षी चतुर्भुज हैं और उनके हाथों में अभयमुद्रा, पद्म (या शक्ति), पद्म (या पद्म से लिपटी पुस्तिका) एवं फल (या जलपात्र) हैं। इन मूर्तियों के परिकर में कभीकभी छोटी जिन आकृतियां भी बनी हैं ।
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