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खजुराहो का जैन पुरातत्व मन्दिर क्रमांक १६
इस मन्दिर में ११ वीं शती ई० की वृषभ-लांछन वाली आदिनाथ की ध्यानस्थ मूर्ति (२' x १' ४') है । तीर्थंकरों के साथ यक्ष-यक्षी के रूप में सर्वाल और चक्रेश्वरी आमूर्तित हैं । घण्टई मन्दिर :
___ जैन मन्दिर समूह के परकोटे से बाहर गाँव के दक्षिण में यह मन्दिर स्थित है। स्तम्भों पर उत्कीर्ण झूलती हुई घण्टियों और क्षुद्र घण्टिकाओं के कारण इस मन्दिर का नाम घण्टई पड़ा। घण्टई नाम सम्भवतः मन्दिर के निर्माणकाल में ही प्राप्त हो गया था, जो खजुराहो के पुरातात्विक संग्रहालय की कुछ मूर्तियों पर घण्टई शब्द के उत्कीर्णन से स्पष्ट है । शृंखला और घण्टों के सुन्दर रूपांकन वाले ये स्तम्भ मध्यभारत के सर्वोत्कृष्ट स्तम्भों में हैं। पूर्वाभिमुख मन्दिर यद्यपि पर्याप्त खण्डित है किन्तु अवशिष्ट भाग यह दर्शाता है कि योजना में यह मन्दिर पार्श्वनाथ मन्दिर के समान और भव्यता और विशालता में उससे बढ़कर था । विस्तार में पार्श्वनाथ मन्दिर से यह लगभग दुगुना था। वर्तमान में इस मन्दिर के केवल अर्धमण्डप और महामण्डप ही शेष हैं। इनमें से प्रत्येक मण्डप की समतल तथा अलंकृत चार स्तम्भों पर आधारित हैं। स्तम्भों के वृत्ताओं के भीतर जैन आचार्यों, विद्याधरों और मिथुन युगलों की अकृतियाँ हैं। कृष्णदेव ने स्थापत्य, मूर्तिकला और लिपि सम्बन्धी साक्ष्यों के आधार पर घण्टई मन्दिर को १० वीं शती ई० के अन्त का निर्माण माना है।'
मन्दिर के महामण्डप के उत्तरंग पर ललाटबिम्ब में अष्टभुज चक्रेश्वरी की मूर्ति है, जो इस बात का प्रमाण है कि मन्दिर आदिनाथ को समर्पित था। उत्तरंग पर द्विभुज नवग्रहों और गोमुख अष्ट वसुओं की भी स्थानक मूर्तियाँ हैं। बड़ेरी पर १६ मांगलिक स्वप्नों तथा द्वारशाखाओं पर मकरवाहिनी गंगा और कूर्मवाहिनी यमुना की त्रिभंग मूतियाँ हैं। अर्धमण्डप की छत तथा मण्डप के स्तम्भों पर तीर्थंकरों एवं जैन आचार्यों की मूर्तियाँ बनी हैं। जैन आचार्यों को सामान्यतः शास्त्रार्थ तथा व्याख्यान की मुद्रा में पुस्तिका के साथ दिखाया गया है । वितान के एक दृश्य में एक निर्वस्त्र जैन आचार्य को व्याख्यान मुद्रा में दिखाया गया है और उसके समक्ष नमस्कार मुद्रा में एक स्त्री आकृति खड़ी है। एक उदाहरण में श्मश्रुयुक्त ब्राह्मण साधु जैन आचार्य के समक्ष नमस्कार मुद्रा में दिखाये गये हैं ।
१. कृष्णदेव "दि टेम्पुल्स आव खजुराहो इन सेण्ट्रल इण्डिया", पृ० ६०; कृष्णदेव, जैन आर्ट
एण्ड आर्किटेक्चर, खण्ड-२, पृ० २८०-८४; जैन, बलभद्र, पूर्व निर्दिष्ट, पु० १३३-३४; जन्नास, ई०, पूर्व निर्दिष्ट, पृ० १४१ ।
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