________________
सजुराहो की जैन कला
और प्रभावित हैं। इन मूर्तियों में विष्णु के किसी अवतार रूप तथा इसी प्रकार शिव के किसी संहारक या अनुग्रहकारी स्वरूप की मूर्तियां नहीं है, जिससे यह प्रकट होता है कि कलाकार ने ब्राह्मण प्रभाव पर किंचित् नियंत्रण रखने की भी चेष्टा की थी। त्रिशूल एवं सर्प तथा नन्दी वाहन वाले शिव एवं स्रुक और पुस्तक से युक्त ब्रह्मा को कुछ विद्वानों ने क्रमशः जैन परंपरा के ईश्वर और ब्रह्मशांति यक्षों से पहचानने का प्रयास किया जो इस मंदिर के शिल्पांकन में ब्राह्मण देव मूर्तियों के स्पष्ट प्रभाव के परिप्रेक्ष्य में प्रांसङ्गिक नहीं है। पार्श्वनाथ मंदिर पर विष्णु एवं बलराम की कई स्वतंत्र तथा शक्तिसहित युगल मूर्तियां हैं । किन्तु खजुराहो की नेमिनाथ की मूर्तियों में बलराम और कृष्ण का निरूपण नहीं हुआ है, जबकि देवगढ़ तथा मथुरा के दिगम्बर स्थलों पर नेमिनाथ की मूर्तियों में इनका अंकन हुआ है । तात्पर्य यह कि पार्श्वनाथ मंदिर की विष्णु तथा बलराम की मूर्तियां ब्राह्मण देव-मंदिरों के अनुकरण पर बनी हैं । यदि ये जैन परंपरा के अंतर्गत बनी होती तो नेमिनाथ की मूर्तियों में भी उनका निश्चित ही अकन हुआ होता । इसी संदर्भ में एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि देवताओं का अपनी शक्तियों के साथ आलिंगनमुद्रा में निरूपण भी पूरी तरह जैन परंपरा के विरुद्ध है । जैन परंपरा में कहीं भी कोई देवता अपनी शक्ति के साथ अभिलक्षित नहीं हुआ है। ऐसी स्थिति में देवताओं का शक्ति के साथ और वह भी आलिंगनमुद्रा में निरूपण परपंरा के सर्वथा प्रतिकूल है। यह तथ्य भी मंदिर की मूर्तियों के ब्राह्मण देव-परिवार से संबंधित होने का ही समर्थक है। मंदिर पर ब्रह्मा और शिव को ब्रह्मशांति या ईश्वर यक्ष के स्थान पर सर्वदा ब्राह्मण देवताओं के रूप में ही दिखलाया गया है ।
पार्श्वनाथ मन्दिर की अप्सरा मूर्तियां खजुराहों मन्दिरों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं । इनमें नारी सौन्दर्य पूरी तरह साकार हो उठा है । अप्सरा मूर्तियों में तोखी भंगिमाओं के माध्यम से शारीरिक आकर्षण की अभिव्यक्ति हुई । अप्सरा मूर्तियों के अतिरिक्त मंदिर पर कामक्रिया में रत युगलों की भी चार मूर्तियां हैं। पर पाश्वनाथ मन्दिर की काम-मूर्तियां खजुराहो के लक्ष्मण, कन्दरिया महादेव, दूलादेव एवं विश्वनाथ मन्दिरों की तुलना में बिल्कुल ही उद्दाम नहीं हैं । पार्श्वनाथ मन्दिर के शिल्पांकन में जहाँ ब्राह्मण प्रभाव पूरी तरह मुखर है वहीं आदिनाथ मन्दिर इस प्रभाव से तरह मुक्त है ।
पार्श्वनाथ मंदिर १.२ मीटर ऊँची जगती पर स्थित है। इसका अधिष्ठान दो श्रेणियों में विभक्त है जिसमें निचले भाग में जाड्यकुंभ, कणिका, पट्टिका अन्तरपत्र और कपोत तथा ऊपरी भाग में पारंपरिक सज्जा पट्टियां हैं, जिनके ऊपर एक वसंत पट्टिका है । जंघा की तीन समानान्तर मूर्ति पट्टियों के ऊपर वरण्डिका तथा शिखर भाग है । इस मन्दिर में गर्भगृह, अन्तराल, महामण्डप और अर्धमण्डप के लिए अलग-अलग शिखर बने हुए हैं जिनमें से अन्तराल, महामण्डप और अर्धमण्डप की छतों के अधिकांश भाग पुननिर्मित है । गर्भगृह का सप्तरथ शिखर नागर शैली का है जिसमें उरुशृंगों की दो पंक्तियां तथा गौणशृंगों (जिनमें कर्णशृंग भी सम्मिलित है) की तीन पंक्तियां हैं। मंदिर का अर्धमण्डप आकार में साधारण किन्तु अत्यधिक अलंकृत है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org