________________
परिशिष्ट
१११ तीर्थकर : कैवल्य-प्राप्ति के पश्चात् साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाओं के सम्मिलित चतुर्विध तीर्थ की स्थापना के कारण जिनों को तीर्थकर कहा गया ।
त्रितीर्थी-जिन-मूर्ति : इन मूर्तियों में तीन जिनों को साथ-साथ निरूपित किया गया। प्रत्येक जिन अष्ट-प्रातिहार्य, यक्ष-यक्षी युगल एवं अन्य सामान्य विशेषताओं से युक्त हैं। कुछ में बाहुबली और सरस्वती भी आमूर्तित हैं । जैन परम्परा में इन मूर्तियों का अनुल्लेख है।
_देवताओं के चतुवा : भवनवासी ( एक स्थल पर निवास करने वाले ), व्यंतर या वाणमन्तर ( भ्रमणशील ), ज्योतिष्क ( आकाशीय-नक्षत्र से सम्बन्धित ) एवं वैमानिक या विमानवासी ( स्वर्ग के देवता )।
द्वितीर्थो-जिन-मति : इन मूर्तियों में दो जिनों को साथ-साथ निरूपित किया गया। प्रत्येक जिन अष्ट-प्रातिहार्य, यक्ष-यक्षी युगल और अन्य सामान्य विशेषताओं से युक्त हैं । जैन परम्परा में इन मूर्तियों का अनुल्लेख है।
___ ध्यानमुद्रा या पर्यकासन या पद्मासन या सिद्धासन : जिनों के दोनों पैर मोड़कर ( पद्मासन ) बैठने की मुद्रा जिसमें खुली हुई हथेलियाँ गोद में ( बायीं के ऊपर दाहिनी ) रखी होती हैं।
नन्दीश्वर द्वीप : जैन लोकविद्या का आठवाँ और अन्तिम महाद्वीप, जो देवताओं का आनन्द स्थल है । यहाँ ५२ शाश्वत् जिनालय हैं।
पंचकल्याणक : प्रत्येक जिन के जीवन की पाँच प्रमुख घटनाएँ-च्यवन, जन्म, दीक्षा, कैवल्य ( ज्ञान ) और निर्वाण ( मोक्ष )।
पंचमपरमेष्ठि : अर्हत् ( या जिन ), सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । प्रथम दो मुक्त आत्माएँ हैं । अर्हत् शरीरधारी हैं पर सिद्ध निराकार हैं ।
परिकर जिन-मूर्ति के साथ की अन्य पार्श्ववर्ती या सहायक आकृतियाँ । बिम्ब : प्रतिमा या मूर्ति ।
मांगलिक स्वप्न : संख्या १४ या १६ । श्वेताम्बर सूची-गज, वृषभ, सिंह, श्रीदेवी ( या महालक्ष्मी या पद्मा ), पुष्पहार, चन्द्रमा, सूर्य, सिंहध्वज-दण्ड, पूर्णकुंभ, पद्मसरोवर, क्षीरसमुद्र, देवविमान, रत्नराशि और निधूम अग्नि । दिगंबर सूची में सिंहध्वज-दण्ड के स्थान पर नागेन्द्र भवन का उल्लेख है तथा मत्स्य-युगल और सिंहासन को सम्मिलित कर शुभ स्वप्नों की संख्या १६ बताई गई है।
मूलनायक : मुख्य स्थान पर स्थापित प्रधान जिन-मूर्ति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org