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________________ ( १७ ) तीर्थ यात्रा जैन परम्परा में तीर्थयात्राओं का प्रचलन कब से हुआ, यह कहना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि चूर्णीसाहित्य के पूर्व आगमों में तीर्थ स्थलों की यात्रा करने का स्पष्ट उल्लेख कही नहीं मिलता है। सर्वप्रथम निशीथचूर्णी में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है कि तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों की यात्रा करता हुआ जीव, दर्शन-विशुद्धि को प्राप्त करता है। इसी प्रकार व्यवहारभाष्य और व्यवहार चर्णी में यह उल्लेख है कि जो मुनि अष्टमी और चतुर्दशी को अपने नगर के समस्त चैत्यों और उपाश्रयों में ठहरे हुए मुनियों को वन्दन नहीं करता है तो वह मासलघु प्रायश्चित्त का दोषी होता है । २ तीर्थयात्रा का उल्लेख महानिशीथसूत्र में भी मिलता है । इस ग्रन्थ का रचना काल विवादास्पद है। हरिभद्र एवं जिनदासगणि द्वारा इसके उद्धार की कथा तो स्वयं ग्रन्यमें ही वर्णित है। नन्दीसूत्र में आगमों की सूची में महानिशीथ का उल्लेख अनुपलब्ध है। अतः यह स्पष्ट है कि इसका रचना काल छठी से आठवीं शताब्दी के मध्य ही होगा। इस आधार पर भी कहा जा सकता है कि जैन परम्परा में तीर्थ यात्राओं को इसी कालावधि में विशेष महत्त्व प्राप्त हुआ होगा। महानिशीथ में उल्लेख है कि "हे भगवन् ! यदि आप आज्ञा दें तो हम चन्द्रप्रभ स्वामी को वन्दन कर और धर्मचक्र की तीर्थयात्रा कर वापस आयें।''३ १. निशीथचूर्णी, भाग ३, पृ० २४ निस्सकडमनिस्सकडे चेइए सवहिं थुई तिन्नि । वेलंब घेइआणि व नाउं रक्किक्किक आववि,' 'अट्रमीचउदसी सुचेइय सम्वाणि साहूणो सव्वे वन्देयव्वा नियमा अवसेस-तिहीसु जहसत्ति ॥' एएसु अट्ठमीमादीसु चेइयाई साहुणो वा जे अणणाए वसहीए ठिआते न वंदंति मास लहु॥ व्यवहारचूर्णी-उद्धृत जैनतीर्थोनो, इतिहास भूमिका, पृ० १० जहन्नया गोयमा ते साहणो तं आयरियं भणंति जहा-णं जइ भयवं तुमे आणावेहि ताणं अम्हेहिं तित्थयत्तं करि (२) या चंदप्पहसामियं वंदि (३) या धम्मचक्कं गंतूणमागच्छामो ॥ . ~महानिशीथ, उद्धृत, वही, पृ० १० २. ३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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