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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
१९९ निक हैं अतः इनकी ऐतिहासिकता का प्रश्न ही नहीं उठता। यहाँ स्थित महावीर जिनालय कब बनवाया गया। इस सम्बन्ध में कोई निश्चित सूचना नहीं होती। यहां से प्राप्त सबसे प्राचीन लेख वि० सं० १२१६/ई० सन् ११५८ के हैं। ये लेख मंदिर के स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं। इनमें जिनालय के सभामण्डप के स्तम्भों के निर्माण कराये जाने की बात कही गयी है। इस आधार पर यह माना जा सकता है कि यह मंदिर उक्त तिथि (वि०सं० १२१६) के पूर्व कभी निर्मित हुआ होगा। वि०सं० १३८९ ई० सन् १३३२ में धाँधल ने अपने माता-पिता के श्रेयार्थ इस जिनालय में २ जिनप्रतिमायें स्थापित करायीं । ये प्रतिमायें आज आबू स्थित गुणवसही के गूढमंडप में रखी गयी हैं ।२ वि० सं० १४२६/ई० सन् १३६९ में प्राग्वाटज्ञातीय महीपाल के पुत्र श्रीपाल ने इस जिनालय का पुननिर्माण कराया, इस अवसर पर प्रतिमा की स्थापना और कलशारोहण कोरंटगच्छीय श्रीकक्कसूरि के पट्टधर सर्वदेवसूरि द्वारा सम्पन्न कराया गया।' काण्हदेव के पुत्र वीसलदेव ने इस जिनालय को वि० सं० १४४२/ई० सन् १३०५ में एक ग्राम तथा अन्य वस्तुयें दान में दीं। यह बात यहां से प्राप्त उक्त तिथि वि०सं० १४४२) के एक अभिलेख से ज्ञात होती है। इसके अलावा यहाँ वि०सं० १५०१ से वि०सं० १६८६ तक के लेख भी विद्यमान हैं, जिनमें इस जिनालय को दानादि प्राप्त होने
और इसके पुननिर्माण का उल्लेख करते हैं।" जैन श्रावकों की एक बड़ी संख्या यहाँ निवास करती थी, वे यहाँ होने वाले उत्सव आदि में पूर्ण सहयोग करते थे। वि०सं० १७२२ में रचित एक तीर्थमाला में १. अर्बुदाचलप्रदक्षिणाजैनलेख संदोह, लेखाङ्क ४४, ४५, ४६, ४७. २. संवत् १३८९ बर्षे फागु( ल्गु )ण सुदि ८ श्रीकौ (को) रटकीयगच्छे
मह पूनसीह भा० पुनसिरि सुत, धाधलेन भ्रातृ मूलू गेहा रुदा सहितेन मुण्डस्थल सत्कश्रीमहावीरचैत्ये निजमातृपितृश्रेयोर्थ जिनयुगलं कारित प्रतिष्ठितं श्रीनय (न्न ) सूरिभिः ।
____ मुनि जयन्तविजय-अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह, लेखाङ्क २४५ ३. अर्बुदाचलप्रदक्षिणाजनलेखसंदोह-लेखाङ्क ४९, ५० ४. मुनि जयन्तविजय-पूर्वोक्त, लेखाङ्क ५१ । ५. मुनि विशालविजय --पूर्वोक्त, पृ० ३२ । ६. जैन, कैलाशचन्द्र-पूर्वोक्त, पृ० ४१९ ।
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