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जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन
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८. श्रीफलवद्धिकापाश्वनाथकल्प फलवद्धिका ( वर्तमान फलोधी ) जैनों का एक प्रसिद्ध तीर्थ है। साहित्यिक तथा अभिलेखीय साक्ष्यों में इसका उल्लेख प्राप्त होता है। ऐसा माना जाता है कि फलवद्धिकादेवी के नाम पर ही इस स्थल का नाम फलद्धि प्रचलित हआ। जिनप्रभसूरि ने इस तीर्थ का उल्लेख किया है और यहां पार्श्वनाथ के मंदिर होने की बात कही है। उनके विवरण की प्रमुख बातें इस प्रकार हैं__"सपादलक्ष देश में मेड़ता नगरी के अन्तर्गत फलद्धि नामक एक ग्राम है, जहाँ फलवद्धिकादेवी का ऊँचे शिखरों वाला चैत्य है। यह ग्राम पहले एक समृद्ध नगर था परन्तु कालान्तर से उजड़ कर साधारण गाँव मात्र रह गया। धीरे धीरे वणिक लोग यहाँ पुन बसने लगे, उनमें दो जैन श्रावक भी थे. पहला श्रीमालवंशीय धांधल और दूसरा ओसवालवंशीय शिवंकर। उन्हें स्वनादेश से भूमि से पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा प्राप्त हुई. जिसे उन्होंने चैत्य बनवाकर वि० सं० ११८१ में राजगच्छीय शीलभद्रसूरि के शिष्य वादीन्द्र धर्मघोषसूरि के वरद् हस्तों से चतुर्विधसंघ के समक्ष प्रतिष्ठित करायी। कालान्तर में सुलतान सहाबुद्दीन गोरी ने मूलबिम्ब को भग्न किया, तब अधिष्ठायकदेव ने म्लेच्छों को रुधिर-वमन एवं अन्धत्व से पीड़ित किया, जिससे सुल्तान ने यहाँ कभी भी आक्रमण न करने का फरमान दिया। चूंकि मूल प्रतिमा भग्न हो चुकी थी, अतः श्रावकों ने दूसरी प्रतिमा स्थापित करनी चाही, परन्तु अधिष्ठायक देव ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। आज भी वह प्रतिमा विकलांग रूप में ही पूजी जाती है।"
उपरोक्त विवरण में ग्रन्थकार ने फलवद्धिका ग्राम में जैन श्रावकों द्वारा भूमि से पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्राप्त करने, तत्पश्चात् चैत्य निर्मित कराने एवं वादीन्द्रधर्मघोषसूरि द्वारा वि० सं० ११८६ में चतुर्विध संघ के समय उसे नवनिर्मित चैत्य में प्रतिष्ठित करने की बात कही है । इसी प्रकार का विवरण पुरातनप्रबंधसंग्रह' में भी प्राप्त होता है, परन्तु चैत्य बनवाने वाले श्रावक तथा प्रतिमा प्रतिष्ठित करने वाले आचार्य तथा समय के बारे में मतभेद है। इस १. “फलवद्धि तीर्थप्रबन्ध" पुरातनप्रबन्धसंग्रह, पृ० ३१
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