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________________ १७१ जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन नाम रुद्रसोमा था। तोसलीपुत्र से उन्होंने दीक्षा प्राप्त की और वैरस्वामी से ९ पूर्वो का अध्ययन किया। उन्होंने अपने परिवार के सभी सदस्यों को जैन धर्म में दीक्षित किया। अनुयोगद्वार नामक सूत्र को उन्होंने वीर सं० ५९२ में कथानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग और गणितानुयोग इन चार भागों में विभाजित किया । वीर निर्वाण सम्वत् ५९७ में उनकी दशपुर में ही मृत्यु हुई।' उनका एक शिष्य गोष्ठामिहिल इस नगरी में सातवां निव हुआ। ___ उपरोक्त परम्परागत विवरणों के अलावा हमारे पास ऐसा कोई साहित्यिक और पुरातात्त्विक साक्ष्य नहीं हैं, जिनके आधार पर प्राचीन काल में इस क्षेत्र में जैन धर्म की स्थिति पर प्रकाश डाला जा सके। परन्तु मध्ययुग के प्रारम्भ में ही यह नगरी जैन धर्म के केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित प्रतीत होती है, क्योंकि मंदसौर और इसके निकटवर्ती स्थानों यथा-कोथड़ी, कोहला, घुसइ. चैनपुर, निमथूर, कुक्कुडेश्वर, केथुली, मचलपुर, वैखेड़ा, पूरागिलाना और सन्धारा आदि से बड़ी संख्या में मध्ययुगीन जैन प्रतिमाओं और मंदिरों के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं।' इससे स्पष्ट होता है कि मध्ययुग के प्रारम्भ से ही यहां जैन धर्म उन्नत दशा में विद्यमान रहा। ऐसी परिस्थिति में जिनप्रभ द्वारा इसे जैन तीर्थ के रूप में उल्लिखित करना स्वाभाविक ही है। • विदिशा विदिशा दशार्ण जनपद की राजधानी और भारतवर्ष की एक प्रमुख नगरी के रूप में प्राचीन काल से ही प्रतिष्ठित रही है । १. आवश्यकचूर्णी, पूर्वभाग, पृ० ४००-४०१, ४०६, ४११; स्थानांगवत्ति (अभयदेव) पृ० ४१३ विस्तार के लिये द्रष्टव्य-मेहता और चन्द्रा-पूर्वोक्त, पृ० ३६१-६२, २. आवश्यकचूर्णी-पूर्वभाग, पृ० ४११-१४ ३. शर्मा, राजकुमार-मध्यप्रदेश के पुरातत्त्व का संदर्भग्रन्थ, पृ०.२७२ ३१६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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