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________________ १४८ पूर्व भारत के जैन तीर्थं ८वीं से ई० सन् १२वीं शतीं) में यहां केवल बौद्ध और ब्राह्मणीय धर्मं ही लोकप्रिय रहे और उन्हीं को राजाश्रय भी प्राप्त हुआ । इसके विपरीत जैन धर्म का इस कालावधि में क्रमशः ह्रास होता गया, जिससे इस समय के जैन पुरावशेषों की संख्या यहां से प्राप्त ब्राह्मणीय और बौद्ध पुरावशेषों की तुलना में नगण्य है ।" वस्तुतः इस युग में यहां जैन धर्मावलम्बियों की संख्या कम हो गयी थी, क्योंकि संभवतः अधिकांश जैनी पश्चिमी भारत में चले गये और जो बचे भी थे उनमें गुजरात के विमल जैसे राज्याधिकारी और वस्तुपाल जैसे श्रेष्ठी न थे बल्कि साधारण श्रेणी के कृषक और व्यापारी थे, जिन्होंने अपने सामथ्यं के अनुरूप ही जिनालयों एवं जिन प्रतिमाओं का निर्माण कराया, जिनके अवशेष आज हमें मिलते हैं । परन्तु प्राचीन परम्परा से सम्बन्धित होने के कारण ये क्षेत्र जैनियों में आदर की दृष्टिसे देखे जाते रहे होगें। जहां तक जिनप्रभसूरि के उक्त विवरण का प्रश्न है, हमारे पास ऐसा कोई भी स्पष्ट प्रमाण नहीं है जिसके आधार पर निश्चित रूप से कुछ कहा जा सके। यह कहना कठिन है कि उन्होंने प्राचीन परम्परा के आधार पर इन स्थानों को तीर्थ रूप में उल्लिखित किया है अथवा उनके समय में इन स्थानों पर जिनालय थे और इस आधार पर उन्होंने इन्हें तीर्थों की सूची में सम्मिलित किया है । स- उड़ीसा १ - कलिङ्गदेश २- माहेन्द्र पर्वत पूर्व भारत १. कलिंगदेश कल्पप्रदीप के चतुरशीतिमहातीर्थ नाम संग्रहकल्प के अन्तर्गत कलिङ्गदेश का भी उल्लेख है और यहां गोम्मटश्री ऋषभदेव के मंदिर होने की बात कही गयी है । १. घोष, अमलानन्द - संपा० जैन कला और स्थापत्य - खंड २ १० २६४ २. वही, पृ० २६४, २६५-६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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