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भाष्यकार ने चार प्रकार के तीर्थों का उल्लेख करते हुए लिखा है' कि१. सर्वप्रथम कुछ तीर्थ (तट) ऐसे होते हैं 'जिनमें प्रवेश भी सुख
कर होता है और जहाँ से पार करना भी सुखकर होता है; इसी प्रकार कुछ तीर्थ या साधक-संघ ऐसे होते हैं, जिनमें प्रवेश भी सुखद होता है और साधना भी सुखद होती है । ऐसे तीर्थ का उदाहरण देते हुए भाष्यकार ने शैवमत का उल्लेख किया है, क्योंकि शैव सम्प्रदाय में प्रवेश और साधना दोनों ही सुखकर माने गये हैं।
२. दूसरे वर्ग में वे तीर्थ ( तट) आते हैं जिनमें प्रवेश तो सुखरूप
हो किन्तु जहाँ से पार होना दुष्कर या कठिन हो । इसी प्रकार कुछ धर्मसंघों में प्रवेश तो सुखद होता है किन्त साधना कठिन होती है। ऐसे संघ का उदाहरण बौद्ध-संघ के रूप में दिया गया है। बौद्ध संघ में प्रवेश तो सुलभतापूर्वक सम्भव था, किन्तु साधना उतनी सुखरूप नहीं थी, जितनी कि शैव सम्प्रदाय की। ३. तीसरे वर्ग में ऐसे तीर्थ का उल्लेख हुआ है 'जिसमें प्रवेश तो
कठिन है किन्तु साधना सुकर है।' भाष्यकार ने इस सन्दर्भ में जैनों के ही अचेल सम्प्रदाय का उल्लेख किया है । इस संघ में अचेलकता अनिवार्य थी, अतः इस तीर्थ को प्रवेश की दष्टि से
दुष्कर, किन्तु अनुपालन की दृष्टि से सुकर माना गया है। ४. ग्रन्थकार ने चौथे वर्ग में उस तीर्थ का उल्लेख किया है जिसमें प्रवेश और साधना दोनों दुष्कर है और स्वयं इस रूप में अपने ही सम्प्रदाय का उल्लेख किया है। यह वर्गीकरण कितना समुचित है यह विवाद का विषय हो सकता है, किन्तु इतना अहव सुहोत्तारूत्तारणाइ दवे चउव्विहं तित्थं । एवं चिय भावम्मिवि तत्थाइमयं सरक्खाणं ।।
विशेषावश्यकभाष्य, १०४१-४१ (भाष्यकार ने इस सूत्र की व्याख्या में चार प्रकार के तीर्थों का उल्लेख किया है।)
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