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उत्तर भारत के जैन तीर्थं
चूर्णी', निशीथचूर्णी धर्मोपदेशमालाविवरण, परिशिष्ट पर्व ४ आदि श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में प्राप्त होता है ।
चूंकि ये सभी रचनायें कल्पप्रदीप से पूर्ववर्ती हैं, अतः यह माना जा सकता है कि जिनप्रभसूरि द्वारा वर्णित उक्त कथानक का मूलभूत आधार उपरोक्त ग्रन्थ ही रहे होंगे ।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, दिगम्बर परम्परा में भी इस नगरी के 'प्रयाग' नामकरण के सम्बन्ध में एक भिन्न कथानक मिलता है । उसके अनुसार आदिनाथ ने कैवल्य प्राप्त होने पर यहाँ अपनी प्रजा को सम्बोधित किया, तत्पश्चात् प्रजा ने उनकी पूजा की और इसीलिये यह स्थान प्रयाग के नाम से विख्यात हुआ ।
आचार्य रविषेण द्वारा विरचित पद्मपुराण में कहा गया है कि भगवान् आदिनाथ ने इस स्थान पर उत्कृष्ट त्याग किया, इसीलिये इसका एक नाम प्रयाग भी प्रसिद्ध हुआ ।
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१. "अण्णिय पुत्ता पुप्फचूलाए आगिएल्लयं न भुजंतो, तेणेव य भवेणं सिद्धो, तो के अत्थ दोसोत्ति ।
५.
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६.
पयागं तत्थ जातं तित्थं । वही, पृ० १७९ २. ... उत्तरमहुरावणिएण वा अणियपुत्तो ।
निशीथचूर्णी, द्वितीय भाग, पृ० २३१ ३. मुनि जिनविजय संपा० धर्मोपदेशमालाविवरण (कर्ता जयसिंह सूरि, रचनाकाल -- वि० सं० ९१५) 'गुरु -विनये पुष्पचूल - कथा' पृ० ४१-४६ ४. हर्मन जाकोबी-संपा० परिशिष्टपर्व (कर्त्ता - हेमचन्द्रसूरि सर्ग ६,
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श्लोक ४३-१७४
आवश्यकचूर्णी, उत्तरभाग, पृ० ३६
एवमुक्त्वा प्रजा यत्र प्रजापतिमपूजयन् । प्रदेश: स प्रजागाख्यो यतः पूजार्थयोगतः ॥
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हरिवंशपुराण ९९६
प्रजाग इति देशोऽसौ प्रजाभ्योऽस्मिन् गतो यतः । प्रकृष्टो वा कृतस्त्यागः प्रयागस्तेन कीर्तितः ॥
पद्मपुराण ३।२८१
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