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सामान्य श्रुतधर काल खंड २ 1
[ ८११ श्री कल्याणविजयजी महाराज ने अपनी ई० सन् १९६५ में प्रकाशित कृति में लिखा है :
............. निर्वाणकलिका में इसके सम्बन्ध में नीचे लिखे अनुसार विधान किया है :
वासुकिनिर्मोकलघुनी, प्रत्यग्रवाससी दधानः करांगुलि-विन्यस्तकांचनमुद्रिकः, प्रकोष्ठदेश नियोजितकनककंकणः, तपसा विशुद्धदेहो वेदिकायामुदङ्मुखमुपविश्य........... (नि० क० १२-१)
अर्थात् बहुत महीन श्वेत और कीमती नये दो वस्त्र धारक, हाथ की अंगुलीमें सुवर्ण-मुद्रिका (बीटी) और मणिबन्ध में सुवर्ण का कंकण धारण किये हुए उपवास से विशुद्ध शरीर वाला प्रतिष्ठाचार्य वेदिका पर उत्तराभिमुख बैठ कर ".... ___श्री पादलिप्तसूरिजी के उक्त शब्दों का अनुसरण करते हुए आचार्यश्रीचन्द्रसूरि, श्री जिनप्रभसूरि, श्री वर्द्धमानसूरि ने भी अपनी-अपनी प्रतिष्ठा-पद्धतियों में "ततः सूरिः कंकणमुद्रिकाहस्तः सदशवस्त्रपरिधानः" इन शब्दों में प्रतिष्ठाचार्य की वेश-भूषा का सूचन किया है।
जैन साधु के प्राचार से परिचित कोई भी मनुष्य यहां पूछ सकता है कि जैन प्राचार्य जो निर्ग्रन्थ साधुओं में मुख्य माने जाते हैं, उनके लिये सुवर्णमुद्रिका और सुवर्ण कंकरण का धारण करना कहां तक उचित गिना जा सकता है ? स्वच्छ नवीन वस्त्र तो ठोक पर सुवर्णमुद्रा कंकरण धारण तो प्रतिष्ठाचार्य के लिये अनुचित ही दिखता है। क्या सुवरणमुद्रा-ककण पहिने विना अंजनशलाका हो ही नहीं सकती?
उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर यह है-प्रतिष्ठाचार्य के लिये मुद्रा कंकरण धारण करना अनिवार्य नहीं है। श्री पादलिप्तसूरिजी ने जिन मल गाथाओं को अपनी प्रतिष्ठापद्धति का मलाधार माना है और अनेक स्थानों में “यदागमः" इत्यादि शब्दप्रयोगों द्वारा जिसका प्रादर किया है, उस मल प्रतिष्ठागम में सुवर्णमुद्रा अथवा सुवर्णकंकण धारण करने का सूचन तक नहीं है। पादलिप्तसूरि ने जिस मुद्रा-कंकण-परिधान का उल्लेख किया है, वह तत्कालीन चैत्यवासियों की प्रवृत्ति का प्रतिबिम्ब है। पादलिप्तसूरिजी आप (स्वयं) चैत्यवासी थे या नहीं, इस चर्चा में उतरने का यह उपयुक्त स्थल नहीं है, परन्तु इन्होंने प्राचार्याभिषेक विधि में तथा प्रतिष्ठा विधि में जो कतिपय बातें लिखी हैं, वे चैत्यवासियों की पौषधशालाओं में रहने वाले शिथिलाचारी साधुओं की हैं, इसमें तो कुछ शंका नहीं है। जैन
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