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________________ ७८४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ अत: उस एकेन्द्रिय जीव की किसी भी प्रयोजन से यहां तक कि स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति की आकांक्षा से भी कभी न तो हिंसा की जाय, न करवाई जाय, न इस प्रकार की हिंसा करने वाले का अनुमोदन किया जाये और न इस प्रकार की हिंसा को भला ही कहा जाय। यहां यह बात भी प्रत्येक तटस्थ व्यक्ति के लिए विचारणीय है कि विश्व के किसी भी सुसभ्य देश में दण्ड संहिता अथवा कानून का निर्माण करने वाले छद्मस्थ व्यक्ति भी सोच-विचार कर यदि उस कानून की किसी भी धारा में किसी प्रकार की छूट की आवश्यकता अनुभव करते हैं तो उस दशा में उस धारा के साथ अपवाद रूप में दी जाने वाली छूट के प्रावधान का स्पष्ट उल्लेख वे करते हैं ठीक इसी तरह मूर्तिपूजा आदि धार्मिक विधि-विधानों के लिये एकेन्द्रियादि जीवों की हिंसा करना आवश्यक समझा जाता तो आचारांग में इस छूट का प्रावधान अवश्य होता। कानून बनाते समय छद्मस्थ होते हुए भी कानून बनाने वाले जब इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि कानून में किसी प्रकार की भूल न रह जाय । तो इस प्रकार की स्थिति में त्रिकालदर्शी तीर्थंकर भगवान से तीर्थ-प्रवर्तन काल में संसार के समक्ष धर्म का स्वरूप प्रकट करते समय प्रथम देशना देते समय किसी प्रकार को भूल रह गयी हो, इस प्रकार की कल्पना तो केवल एकान्ततः मिथ्यात्वी अभव्यात्मा ही कर सकती है । अतीतानागत वर्तमान इन तीनों काल के समग्र भावों को हस्तामलक वत् देखने जानने वाले तीर्थेश्वर से इस प्रकार को भूल की अंश मात्र भी अपेक्षा कोई आस्तिक भव्य नहीं कर सकता। इस प्रकार सूर्य के प्रकाश की भांति पूर्णतः स्पष्ट स्थिति में तीर्थेश्वर भगवान महावीर ने जिस समय यह फरमाया ___“से बेमि जे य अईया जे य पडुप्पन्ना जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंता ते सव्वे एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेंति एवं परुति सव्वे पारणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा न अज्जावेयववा न परिधेतव्वा न परितावेयव्वा न उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे निइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहि पवेइए, तंजहा-उट्ठिएसुवा अणुट्ठिएसुवा, उवट्ठिएसुवा अणुवट्ठिएसुवा उवरय दंडेसुवा अणुवरय दंडेसुवा सोवहिएसुवा अणुवहिएसुवा संजोगरएसुवा असंजोगरएसुवा, तच्चचेयं, तहाचेयं अस्सिंचेयं पवुच्चइ।" (आचारांग, अ० ४, उ०१) इसी प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु और वनस्पति काय के जीवों की हिंसा अथवा आरम्भ समारम्भ को अबोधि अहित एवं अनन्त काल तक भयावहा भवाटवी में भटकने का हेतु अथवा कारण बताते हुए फरमाया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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