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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ संसार छोड़कर साधु होने की है, मुझे दीक्षा दीजिये।" हरिकीर्ति ने सोचा-मैं अगर इसको योग्य मार्ग न दिखाऊंगा तो यह किसी कपटी कुगुरु के जाल में फंस जायगा, उन्होंने कडुवा से कहा-प्रथम दशवैकालिक के चार अध्ययन पढ़ो। उसने स्वीकार किया और हरिकीर्ति के पास दशवैकालिक के चार अध्ययन अर्थ के साथ पढ़े। अध्ययन पढ़ने के बाद कडुवा ने उनसे पूछा-पूज्य ! सिद्धान्त मार्ग तो इस प्रकार है, तब आजकल साधु इस मार्ग के अनुसार क्यों नहीं चलते ? हरिकीति ने कहाअभी तुम पढ़ो और सुनो, बाद में सिद्धान्त की चर्चा में उतरना। महता कडुवा ने पंन्यास के पास सारस्वत व्याकरण, काव्यशास्त्र, छन्दशास्त्र चिन्तामणि प्रमुख वाद शास्त्र पढ़े और आचारांग आदि सूत्रों के अर्थ सुन कर प्रवीण हुआ । बाद में पन्यास हरिकीति ने कडुवा से कहा-हे वत्स ! आचारांग आदि सूत्रों में जो साधु का आचार लिखा है, वह आज के साधुओं में देखने में नहीं आता। आज के सर्व यति पूजा प्रतिष्ठा, कल्पित दान आदि कार्यों में लगे हुए हैं, जिन-मन्दिरों के रक्षक बने हुए हैं, क्योंकि वर्तमान काल में दसवां अच्छेरा (आश्चर्य) चल रहा है। यह कह कर उसने "ठाणांग सूत्र" की आश्चर्य प्रतिपादक गाथाएं, “संघपट्टक की" गाथाएं और "षष्टिशतक प्रकरण" की गाथाएं सुनाकर वर्तमान कालीन साधुओं की आचारहीनता का वर्णन किया और उसकी श्रद्धा कुण्ठित करने के लिये हरिकीर्ति ने पिछले समय में जैन श्रमणों में होने वाली धडाबन्दियों का विवरण सुनाया। उन्होंने कहा–११५६ में पौर्णमिक, १२०४ में खरतर, १२१३ में अंचल, १२३६ में सार्द्धपौर्णमिक, १२५० में त्रिस्तुतिक, १२८५ में तपा अपने-अपने अाग्रह से उत्पन्न हुए। १५०८ में लुंका ने अपना मत चलाया। अब तुम ही कहो तो इन नये गच्छ प्रवर्तकों में से किस को युगप्रधान कहना और किसको नहीं। इस समय शास्त्रोक्त चतुष्पर्वी की आम्नाय दिखती नहीं । जहां युगप्रधान होगा, वहां उक्त सभी बातें एक रूप में होगी । इसलिये तुम तो युगप्रधानों का ध्यान करते हुए श्रावक के वेश में “संवरी' बनकर रहो, जिससे तुम्हारी आत्मा का कल्याण हो ।
शाह कडुवा ने जैन सिद्धांतों की बातें सुनी थीं, उसको हरिकीर्ति की बात ठीक जंची, वह साधुता की भावना वाला प्रासुक जल पीता, अचित्त आहार करता, अपने निमित्त नहीं बनाया हुआ विशुद्ध आहार श्रावक के घर से लेता था। ब्रह्मचर्य का पालन करता, १२ व्रत धारण करता हुआ, किसी पर ममता न रखता हुआ पृथ्वी पर विचरने लगा।'
विक्रम की १५वीं १६वीं शती के जैन श्रमणों में शिथिलाचार की पराकाष्ठा के परिणामस्वरूप ही महान् विरक्त द्विजोत्तम कडुवाशाह ने श्रमणधर्म
१. कडुवा मत गच्छ को पट्टावली, पट्टावली पराग संग्रह (पं० कल्याण विजयजी)
पृष्ठ ४८१-८२
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