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________________ ७७८ 1 [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ उल्लेखानुसार जिस प्रकार कीचड़ में होते हुए भी कमल कीचड़ से निर्लिप्त रहता है ठीक उसी प्रकार श्री हेमविमलसूरि ने भी क्रिया शिथिल साधु समुदाय के बीच रहते हुए भी श्रमणाचार की परिपालना में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं आने दी । ' तपागच्छ के ५५ वें पट्टधर आचार्य हेमविमलसूरि के पश्चात् वि० सं० १५७० में श्री प्रानंदविमलसूरि तपागच्छ के ५६ वें अधिनायक बने । गच्छाधिपति पद पर आसीन होने के उपरान्त भी उन्होंने लगभग ११ वर्ष पर्यन्त क्रियोद्धार नहीं किया । वि० सं० १५८२ में उन्होंने सवामन सोने की मूर्ति अन्धकूप में डाल पावभर महा मूल्यवान मोतियों का चूर्ण अथवा बुरादा बना मिट्टी में मिला कतिपय वहिवट बहियों को कतिपय गच्छों के प्राचार्यों में बांट कर तथा शेष बहियों को जलशरण करने के अनन्तर और भी सब प्रकार के परिग्रह का परित्याग कर लोंकाशाह द्वारा १५०८ में प्रारम्भ की गई धर्मक्रान्ति के प्रचण्ड वेग से मूर्ति पूजा की रक्षा करने के उद्देश्य से दो अन्य आचार्यों के साथ त्रियोद्धार किया । इस प्रकार लोकाशाह द्वारा धर्मक्रान्ति का शंखनाद पूरे जाने के ठीक ७४ ( चोहत्तर) वर्ष पश्चात् तपागच्छ की चार पीढियां बीत जाने के अनन्तर तपागच्छ तथा अन्यान्य गच्छ, के साधुत्रों में व्याप्त शिथिलाचार को दूर करने के लिये गच्छनायक पद की दृष्टि से पांचवीं पीढ़ी आनन्द विमलसूरि ने वि० सं० १५८२ में क्रियोद्धार किया और अपनी वृद्धावस्था के उपरान्त भी घोर तपश्चरण और प्रतीव श्लाघनीय साहस के साथ सुदूरस्थ क्षेत्रों में विहार एवं धर्म प्रचार कर लोंकाशाह द्वारा वि० सं० १५०८ में प्रवाहित क्रान्ति प्रचण्ड प्रवाह से मूर्तिपूजा की रक्षा करने में सफलता प्राप्त की । लोकाशाह द्वारा किये गये धर्मक्रान्ति के सूत्रपात्र से लगभग ५६ वर्ष पश्चात् पार्श्वचन्द्रसूरि ने वि० सं० १५६४ में क्रिया उद्धार कर जैन धर्म संघ में व्याप्त विकारों एवं आगम विरोधी मान्यताओं का डट कर विरोध करना प्रारम्भ किया । जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, उन्होंने वि० सं० १५७५ में पाटण संघ और वहां विराजित अनेक गच्छों के आचार्यों को पत्र लिखकर तत्कालीन श्रमणों की श्रमणाचार से एकान्ततः विपरीत, आगमों से पूर्णतः प्रतिकूल असाधुजनोचित प्रवृत्तियों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हुए उस समय के चतुर्विध संघ की दयनीय दशा को बड़े ही हृदयद्रावी शब्दों में चित्रित किया है । कठोर श्रमणाचार के संबंध में स्पष्ट निर्देश है : जत्थित्थ करफरिसं, अंतरिय कारणे विउप्पन्न । अरहावि करेज्ज सयं तं गच्छं मूल गुण मुक्कं ॥ १. यः क्रिया शिथिल साधुसमुदायें वर्तमानोऽपि साध्वाचारावतिक्रान्तः ..........''न च तेषां क्रियाशिथिलसाधु समुदायावस्थाने चारित्रं न संभवतीति शंकनीयं, एवं सत्यपि गणाधिपतेश्चारित्रसंभवात् । यदागमः - साके नाम एगे एरण्डपरिवारे त्ति । Jain Education International - पट्टावली समुच्चयः, प्रथम भाग, पृष्ठ ६८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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