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________________ ७६२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ नजरंदाज कर दिया, जिस साहित्य से स्पष्ट प्रमाणित होता है कि ५८ बोल वस्तुतः महान् धर्मोद्धारक धर्मप्राण लोंकाशाह के ही हैं, किसी अन्य के नहीं । पासचन्दगच्छ के संस्थापक, श्रीमदहीपुरीय तपागच्छाधिराज श्री पार्श्व चन्द्रसूरीन्द्रेण विरचिता चर्चा - "लूंकाए पूछेला १३ प्रश्न अने तेना उत्तरो" नामक ऐतिहासिक कृति की केवल हस्तलिखित प्रतियां ही, लालभाई दलपतभाई इण्डियोलोजिकल इन्स्टीट्यूट, अहमदाबाद आदि इने, गिने शोध संस्थानों अथवा ज्ञान भण्डारों में विद्यमान हैं । ऐसी दशा में बहुत संभव है कि प्राचार्य श्री पार्श्वचन्द्र की यह वि० सं० १५७४ से पूर्व की ऐतिहासिक कृति विद्वान् सेठ श्री के देखने-पढ़ने में न आई हो किन्तु पार्श्व चन्द्रसूरि की " स्थापना पंचाशिका" नामक कृति तो शेठ श्री द्वारा महान् युगप्रवर्तक लोकाशाह पर लेखिनी उठाने से २५ वर्ष पूर्व ही प्रकाशित हो चुकी थी । शेठ श्री यदि प्राचार्य श्री पार्श्वचन्द्रसूरि द्वारा निर्मित "लूंकाए पूछेला १३ प्रश्न अने तेना उत्तरो" एवं " स्थापना पंचाशिका प्रकरण" नामक दोनों कृतियों को और इनके निर्माण के सम्बन्ध में उनके द्वारा प्रकट किये गये उद्देश्य को पढ़ लेते तो सुनिश्चित रूपेण वे महान् धर्मोद्धारक लोंकाशाह के सम्बन्ध में निम्नलिखित अनर्गल एवं निराधार विचार अपनी कृति लोकाशाह ने धर्म चर्चा में प्रकट कर अपनी लेखिनी को कलुषित नहीं करते : १. "बीजुं लोकाशाहे धर्म नो उद्धार मुद्दल ज कर्यो न होतो परन्तु खरू कही तो अधर्मनुंज प्रतिपादन कयुं हतुं ।” ( पृ० २७ ) २. "लोंकाशा एक पण सूत्र लख्युं न होतुं । तेमनी पासे एक परण सूत्र हतुं नहि तेमज तेमने अर्धमागधी भाषानुं ज्ञान परण न होतुं । एटले लोकाशाह बीस सूत्रोनी मान्यता चलावी नहोती ।" ( पृ० २५, लोंकाशाह ने धर्म चर्चा ) ३. "लोंकाशा हे फक्त क्रोधथी, द्वेषथी सूत्र, धर्मक्रिया, दान पूजा वगैरेनो बहिष्कार कर्यो हतो अने स्थानकवासीश्रोए सूत्रना खोटा अर्थ करी मूर्ति नी निषेध कर्यो छे एटले तेमना कार्यो मां धर्म नो उद्योत तो छे ज नहि परण ते धर्मनी हानिनुं ज कार्य छे अने ते असंयति पूजा नामना अच्छेरा मां गणाय ।" ( पृ० २६ ) ४. “ लोकाशाहनी मान्यता तो सदंतर धर्मविरुद्धनी जहती । एटले खरू कहीए तो आजे लोकाशाहनो तो कोई अनुयायी छेज नहि । " ( पृ० ४६ ) ५. "अधर्म नी प्ररूपणा करनार ने जैन समाज मां धर्म विरुद्धनी वातों के धर्मविरुद्ध नां सिद्धान्तो फेलावनार व्यक्ति ने पोताना प्राद्य पुरुष तरीके मानवा ऐ सांचा जैनधर्मी माटे मिथ्यात्व अपनाववा जेवुं कार्य गणाय ।” ६. " ( वि० ) सं० १६८५ मां धर्मसिंहजीए मूर्तिपूजक लोंकागच्छ मां थी छूटा पड़ी फरी थी मूर्ति नो विरोध उठाव्यो हतो । अने ते पछी तुरतमां एटले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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