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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ विनती करी-"गच्छ त्यागो (वोसरावो) क्रिया उद्धार करो"। "आनन्दविमलसूरि ने (देवी से) कहा-देवी ! तुम से शासनभक्त होते हुए लुंगा (लुंका) के अनुयायी जिनमन्दिर और जिनप्रतिमाओं का विरोध करते हुए लोगों को जिनमार्ग से श्रद्धाहीन बना रहे हैं, तुम्हारे जैसों को तो ऐसे मतों को मूल से उखाड़ डालना चाहिये।" ........आनन्दविमलसूरि और विजयदानसूरि....राजसूरिजी के पास आये और कहा"हम दोनों लुकामत का प्रसार रोकने के कार्यार्थ तत्पर हैं तुम भी इस काम के लिए तैयार हो जाओ ।........(मैंने) परिग्रह सम्बन्धी मोह छोड़ कर वहीवट की बहियां जल में घोल दी हैं, सवा मन सोने की मूर्ति अन्धकूप में डाल दी, सवा पाव सेर मोतियों का चूरा करवा के फेंक दिया है, दूसरा भी सभी प्रकार का परिग्रह छोड़ दिया है।" वि० सं० १५८२ से १५९६ तक गुजरात से लेकर आगरा तक के सुविशाल क्षेत्र के गांव-गांव, नगर-नगर में घोर तपश्चरणपूर्वक उग्रविहार कर अानन्दविमलसूरि ने प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की, अनेक जिनबिम्ब भरवाए और इस प्रकार लोकाशाह द्वारा सूत्रित और देश के कोने-कोने में प्रसृत धर्मक्रान्ति के तीव्र प्रवाह को मन्द किया । अानन्दविमलसूरि के ही अथक प्रयासों से-“सं० १५६६ तक बहुत से लुंका के अनुयायी गृहस्थ तथा वेषधारक उपदेशक मूर्ति मानने वाले हुए"-अर्थात् श्री आनन्दविमलसूरि के अथक प्रयासों से लोंकाशाह की आगमिक मूल मान्यता से नितान्त विरुद्ध मान्यता वाले मूर्तिपूजक लुंकागच्छ का जन्म हुआ।
इन सब उल्लेखों की ओर "लोकाशाह अने धर्म चर्चा' के विद्वान् लेखक ने किंचित्मात्र भी ध्यान नहीं दिया। शेठ श्री नगीनदास भाई ने “लुकामत प्रतिबोध कुलक" के इस उल्लेख की ओर भी दृष्टिनिपात तक करना संभवतः उचित नहीं समझा कि वि० सं १५३० में पंन्यास हर्षकीर्ति ने सम्पूर्ण धुंधुका क्षेत्र को लुकागच्छ का अनुयायी बना कर गुर्जर राज्य के पट्टनगर अनहिलपुर पत्तन में भी लोंकागच्छ का वर्चस्व स्थापित कर दिया था।
लोकाशाह के स्वर्गस्थ होने से बहुत समय पूर्व ही लोकाशाह द्वारा प्रकाश में लाया हुआ धर्म का विशुद्ध आगमिक स्वरूप भारत के सुविशाल भाग के जैनधर्मावलम्बियों के मन, मस्तिष्क, अन्तस्तल एवं हृदयपटल पर श्रद्धाबिन्दु के रूप में अंकित हो चुका था और लोंकाशाह के अनुयायियों की संख्या लाखों की गिनती को भी लांघ चुकी थी। .
यह तो महान् धर्मोद्धारक, धर्मप्राण लोंकाशाह द्वारा अनुपम साहस के साथ अभिसूत्रित की गई धर्मक्रान्ति का, लोकाशाह के आगमिक प्रमाणों से परिपुष्ट उपदेशों एवं ५८ बोल, ३४ बोल, १३ प्रश्न आदि उनके सत्साहित्य का ही प्रताप था कि विपुल परिग्रह, अपार धन-सम्पत्ति बटोरने में अहर्निश संलग्न-संलिप्त सभी गच्छों, सभी श्रमण-परम्पराओं के प्राचार्यों, साधुवर्ग और यतियों को क्रियोद्धार के लिए बाध्य होना पड़ा। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी का समग्र जैनवांग्मय, प्रायः सभी पट्टावलियां इस निर्विवाद तथ्य को पुकार-पुकार कर प्रकट कर रही हैं कि
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