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________________ ७५८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ हलाबोल ढूंढक थयो। पछे श्री पूज्य प्रागरें गया। छट्ट अट्ठम पारणें । एक बडेरो श्रावक लुंके दीक्षा लीधी, हानऋख्य, वानऋख्य ३०० ठाणा संघो रहेछ । ते वडेरा श्रावक ने उसरियें उतर्या । श्री पूज्य छठ ने पारणे तेह ने घरें राख डोसीई वोहरावी छास मध्ये भेली करी पारणो कीधुं । बहुए सात लाडूया आप्या, न लीघा । पछे रात्रे डोसीइं काकडा करी कानमध्ये तीन वार खेप्यां। तो ही न चल्या । प्रभाते सात दीकरां ने तेडी कहे गौतम सुधर्मा स्वामी आव्या छ। सर्व वात कही, देसना सांभली प्रतिबोध पाम्यां । सर्व लोकें श्री पूज्य जी नों ओच्छव कीघो। सर्व जिन प्रतिमा चार निखेपा मनाव्या। प्रानऋख्य वानऋख्य तीन से ने चेला श्री पूज्ये कीधां। कई श्रावकें दीक्षा लीधी। सात सौ साधु समवाय करी भव्य जीव ने प्रतिबोध देइ सब देशें जिन मनावीं चौमासू मेडते रही ठामो ठाम साधु मोकला आदेशेंपछे श्री पूज्य विहार करता देस प्रतिबोधता त्रम्बावतीनगरी पधार्या । तिहां खरतरगच्छे श्री पूज्य नी महिमा देखी रगतियो मुक्युं । दिन प्रतें साधु मरण पामें । ठाणुं डेड सौ मरण पाम्या । श्री पूज्य उपद्रव्य देखी अर्बुदा भवानीये पाछा आव्या । मातायें कह्य मरण नहीं साधु पामें । रगतियो तो मुझ थी मनें नहीं थाय । जाओ घान धार मध्ये तिहां तुमनें सुख थास्यें। दिन प्रत्ये रगतियो आवें । लोही शरीर ना सोसी लें। साधु मांहु थाय । दुख पामें । मरे कोई नहीं। इम करतां घानधार मध्ये प्रावे । हवे ते समयं उज्जैन नो वाणियों मारणकशा नव हजार रुपया लेई शत्रुजेय श्री पूज्यजी ने वांदवा आवे छै। वे ब्राह्मण संघातें । धारणधार मध्ये आव्यो। कोलिये मारणकशा ने मार्यों। शर्बुजा ने थान्ये । वेंतर बत्तीसनीय काय मां वडेरो इन्द्र थयो। ब्राह्मण ने कहें नव हजार रुपीया छै । ते मध्य थी पांच हजार शत्रुजय मूंकजो। पांच में पांच में तुम्हें लेज्यो। त्रण हजार रुपया माहरा गुर श्री पूज्यजी ने उच्छव मां खरचयो। श्रावक ने प्रापज्यो। नहीं खरच्या तो तुम ने दूख देईश । इम कही रात पडे त्यां रें। बावन वीर संघाते मगरवाडा पासें मसारण भूमें रात्रं खेले । जग्या सुद्ध करे। इम करतां मास डोड थयो। एहवें समय श्री पूज्य विहार करता तिहां आव्या । जग्या सुद्ध निरमल देखी तिहां पडलेइ संथार्यों आदरियौ। सर्व साधु पोरभणी सर्व सूता । मध्य रात्रे बावनवीर अाव्या । ते मध्ये श्रीमणिभद्र हाथी ऊपर चढ्यो तलाव पासें आव्या । श्रीमणिभद्रजी कहें-माहरी जग्या इं कुण उतर्या छै । तिवारे एकला मणिभद्रजी आया। देखे तो श्री पूज्यजी बैठा छै । पर्छ श्री मरिणभद्रजी श्रावक नो वेष लेइ उत्तरासन वाली प्रदक्षणा देइ पगे लागां । श्री पूज्यजी ने कहें-मुझ ने अोलखो छो ? हूं उज्जैन नो वाणियो मारणकसा । हूं तुमने वांदवा आवतां मुझ ने इहां भीलें हण्यौ । श्री शत्रुजां ने ध्याने मरी बत्रीस व्यंतर मांहि त्रिणिनिकाये इन्द्र हं थयो छु । श्री गुरु सान्निध्ये। एहवे समय रगतियो आव्यो। सर्व साधु ने शरीर धमघमावें, शरीर ना लोही सोसी नें। एहवं देखि मणिभद्रजी इं रगतिया में पकड़ी दूर कर्यो । आज पछी दुख देईस मा । श्री पूज्यजी ने कहें-हवे हूं जैन शासन ने विषे तुम्हारा साहु साध्वी श्रावक-श्राविका ने साज्य कष्ट निवारस्युं । जे तुमारे पाटें बैसें तेह ने नाम थापना मांहि माहरा नाम अक्षर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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