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________________ धर्मोद्धारक सद्धर्ममार्तण्ड श्री लोकाशाह का आर्यधरा पर आविर्भाव यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। गीता के माध्यम से संसार के समक्ष सार्थक अमोघ सूक्ति के रूप में किया गया यह घोष वीर निर्वाण की बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में अन्ततोगत्वा चरितार्थ हुआ । जैसा कि बताया जा चुका है, जिस समय जैन संघ सातशीलत्वपरक हठाग्रहपूर्ण अगणित विभेदों में विभक्त एवं क्षीण हो पारस्परिक कलह, विद्वेष एवं असहिष्णुताजन्य धार्मिक संघर्ष की क्रीड़ास्थली बन चुका था, शिथिलाचार के घने कोहरे में विशुद्ध श्रमणाचार एक प्रकार से ओझल सा हो गया था, बाह्याडम्बरों के घनघोर घटाटोप में सद्धर्म का मूल आध्यात्मिक स्वरूप ग्रहश्य प्रायः हो चुका था, मुक्तिपथप्रदर्शक साधु-साध्वी वर्ग सातशीलत्ववशात् जैनधर्म के मूल सिद्धान्तों अथवा आगमिक प्रदेशों से एक प्रकार से नितान्त विमुख हो स्वयं श्रमणों के लिए एकान्ततः अनादेय - ग्रनाचरणीय भविष्यकथन, श्रौषधोपचार, यन्त्र-तन्त्र-मन्त्र आदि के माध्यम से परिग्रह तथा प्रभावार्जन की दौड़ में दत्तचित्त हो सर्वात्मना - सर्वभावेन अग्रसर हो रहा था, शिथिलाचार में ग्राकण्ठ निमग्न हो गया था, शास्त्रोक्त विशुद्ध श्रमणाचार का त्रिविध योंग त्रिविध करण से परिपालन करने वाले श्रमरण-श्रमणियों के दर्शन तक दुर्लभ हो चुके थे, धर्म का विशुद्ध स्वरूप जिस समय भौतिक कार्यकलापों से प्रोत-प्रोत बाह्याडम्बर के गहडम्बर घटाटोप में सा गया था, उस समय सद्धर्ममार्तण्ड, धर्मप्रारण लोंकाशाह का एकमात्र धर्मोद्धार के लक्ष्य से आर्यधरा पर श्राविर्भाव हुआ । जन्म-जन्मान्तरों की प्राध्यात्मिक साधना और पूर्वोपार्जित पुण्य के प्रताप के परिणामस्वरूप लोकाशाह अपने शैशवकाल अथवा बाल्यकाल से ही प्रबुद्ध एवं धर्म के प्रति अपने कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक थे । प्राणिमात्र के सही अर्थों में त्राता, जगदैकबन्धु श्रमरण भगवान् महावीर के धर्मसंघ में अपने समय में व्याप्त अन्तर्द्वन्द्व, पारस्परिक कलह, आगम विरुद्ध आचार-विचार, साम्प्रदायिक व्यामोह, जैनधर्म के मुक्तिप्रदायी प्राध्यात्मिक पथ से प्रतिकूल दिशा में भौतिकता की प्राडम्बरपूर्ण दौड़ की ओर चतुविध संघ की सार्वत्रिक सक्रिय अभिरुचि एवं सर्व सावद्य कार्यकलापों से जीवन पर्यन्त विरत रहने की दृढ़ प्रतिज्ञा के साथ पंच महाव्रतों को धारण करने वाले श्रमण श्रमरणी वर्ग की प्रारम्भसमा छुप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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