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________________ ६१४ ] १. [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ तथ्य है क्योंकि निशीथ चूर्णीकार ने अनेक स्थानों पर "अस्यैवार्थस्य स्पष्टतरं व्याख्यानं सिद्धसेनाचार्यः करोति " - ( गाथा ३०३ का उत्थान ) " एतस्स चिरंतन गाहापायस्स सिद्धसेनाचार्य: स्पष्टेनाभिधानेनार्थमभिधत्त" ( गाथा २५० की चूर्णी ) " एसेबइत्थो सिद्धसेनखमासमणेण फुडतरो भन्नति " -- ( गाथा ४०६८), "एइए प्रतिदेसे करावि सिद्धसेर खमासमरणो पुव्वद्धस्स भरिणयं प्रतिदेसं बक्खाणेति” - ( गाथा ६१३६ ) आदि-आदि निर्देशात्मक वचनों द्वारा सिद्धसेन क्षमा-श्रमरण को निशीथ भाष्यकार बताया है । तो इस प्रकार की स्पष्ट स्थिति में निशीथ भाष्य भी विशाखाचार्य की कृति किसी भी दशा में नहीं मानी जा सकती। नियुक्ति भी विक्रम की छठी शताब्दी में ( वीर निर्वाण सम्वत् १०३२ के प्रास - पास ) हुए भद्रबाहु की कृति है, यह प्रमाण पुरस्सर सिद्ध किया जा चुका है ।' अब शेष रह जाता है निशीथ सूत्र । निशीथ सूत्र के रचनाकार के रूप में तो विशाखाचार्य का नाम लिये जाने का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । ग्राज निर्युक्तियां जिस रूप में विद्यमान हैं उनके कर्त्ता तो निश्चित रूप से विक्रम की छठी शताब्दी में हुए नैमित्तिक भद्रबाहु हैं तथापि इन नियुक्तियों की कतिपय पुरातन गाथाओं को श्रुतकेवली भद्रबाहु के द्वारा रचित मान लिया जाय तो भी विशाखाचार्य तो निशीथ के रचनाकार नहीं हो सकते क्योंकि वे श्रुतकेवली भद्रबाहु के शिष्य एवं पट्टधर माने गये हैं । शिष्य मूलसूत्र की रचना करे और गुरु उसकी नियुक्ति की रचना करे इस प्रकार की कल्पना करना भी हास्यास्पद ही कहा जायगा । उन विशाखाचार्य की निश्रा में, उनके समय में अथवा स्वयं उनके द्वारा निशीथ आदि के लिखे जाने की बात तो कोई भी विज्ञ नहीं कर सकता । इस प्रकार निशीथ सूत्र, निशीथ निर्युक्ति, निशीथ भाष्य और निशीथ चूरिंग इन चारों से उन विशाखाचार्य का किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रह जाता जो कि श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु के शिष्य थे। भगवान् महावीर के शासन की विभिन्न परम्पराओं में उक्त विशाखाचार्य के पश्चात् जितने भी प्राचार्य हुए हैं, उनमें से कुछ परम्पराम्रों की जो थोड़ी बहुत पट्टावलियां उपलब्ध हैं, उनमें विशाखाचार्य का नाम निशीथ की प्रशस्ति और 'तित्थोगाली पइण्णय' को छोड़कर अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता । (क) वृहत्कल्प भाष्य, भाग ६, प्रस्तावना (ग्व) जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग २ पृष्ठ ३७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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