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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
तपागच्छ
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गच्छों में पारस्परिक विद्वेष की अग्नि प्रबल वेग से भड़क उठी थी और उस विद्वेषाग्नि में आत्मीयता और स्नेह के सुदृढ़ बन्धन भी टूट रहे थे।
विविध पट्टावलियों के उल्लेखों से यह आभास होता है कि प्रानन्द विमलसूरि के प्राचार्य काल में भी साम्प्रदायिक विद्वेष बड़ा उग्र रूप धारण कर गया था और वह उपाध्याय धर्म सागर के समय के साम्प्रदायिक विद्वेष की अपेक्षा भी अधिक घातक था। इस सम्बन्ध में तपागच्छ पट्टावली का निम्नलिखित उल्लेख वस्तुतः मननीय हैं :
"दिवसे दिवसे गच्छ ममत्व बधतु जतु हाँ । खरतर तेमज तपागच्छना साधु वच्चे कदाग्रह वधी पड्यो हतो अने येन केन प्रकारेण एक बीजा अन्य गच्छीय साधुअोनो पराभव करवा मां रत रहेता। कहेवाय छे के प्रा ममत्वे एवु जोर पकड्यु के तेना मद मां कार्याकार्य नु पण भान न रह्य। खरतरगच्छीय साधु ए भैरव नी आराधना करी तेनां द्वारा तपागच्छीय लगभग ५०० साधुनो नो संहार कराव्यो । प्रा निर्दय समाचार सांभलतां ज अानन्द विमलसूरि नुं मन खिन्न बण्यु । तपागच्छनी सार सम्भालनो बोझो पोता ने सिर होवा थी आवा कृत्यो नी उपेक्षा करी शकाय तेम न हतु। पोते पोता नो पालनपुर तरफ विहार लम्बावी मगरवाड़ा नी झाड़ी मां वास कर्यो। रात्रिए ध्यानस्थ अवस्था समये मणि भद्र देव तेमनी समक्ष प्रकट थयो भने प्राज्ञा फरमाववां जणाव्य । गरु महाराजे खरतरगच्छीय यतियो नां जुल्मो नी बात कही बतावी । तेवा सितमो नु निवारण करवा नुकह यु। मणिभद्रे शासन भक्ति ने अंगे ते कथन स्वीकायु पण साथो साथ मांगणी करी के तपागच्छ ना देरासरो ते मज उपाश्रयो मां मारी मूत्ति नी स्थापना करवामां आवे । गुरु ए तेनु वचन स्वीकार्यु ने ते वात नी साक्षी रूपे प्रत्यारे पण केटलाक स्थलो ए मणिभद्र नी मूत्ति नी स्थापना जोवा मां आवे छे ।''
भैरव की साधना कर तपागच्छ के ५०० साधनों की हत्या करवा दिये जाने विषयक यह उल्लेख वस्तुतः विज्ञों के लिए विचारणीय है। ज्ञान सम्बन्धर और अप्पर की प्रेरणा से पाण्ड्य राज एवं पल्लवराज द्वारा. ५००-५०० जैन साधु। की सामूहिक हत्या करवाये जाने के उल्लेख तो उपलब्ध होते हैं किन्तु दैवी शक्ति के माध्यम से तपागच्छ के ५०० साधुओं की हत्या करवा दिये जाने का इस प्रकार का उल्लेख जैन इतिहास में अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। .
इस सन्दर्भ में शास्त्रों में वर्णित आनन्द कामदेव चुल्लणी पिया, शतक आदि दस श्रावकों के साधनावृत्त, देवों द्वारा उनके समक्ष उपस्थित किये गये घोर १. तपागच्छ पट्टावली पृष्ठ २०६ से २१०
पं. कल्याण विजयजी द्वारा सम्पादित
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