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________________ तपागच्छ अन्यान्य गच्छों की भांति तपागच्छ की उत्पत्ति भी क्रियोद्धार के परिणामस्वरूप ही हुई। वृहद्गच्छ (बड़गच्छ) के श्रमण समुदाय में काल प्रभाव से शिथिलाचार उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया । तपागच्छ पट्टावली के अनुसार भगवान् महावीर के ४२वें पट्टधर श्री विजयसिंहसूरि ने सोमप्रभसूरि और मणिरत्नसूरि नामक अपने दो गुरु भ्राताओं को अपने पट्ट पर आसीन किया। तदनन्तर इन दोनों प्राचार्यों ने कालान्तर में जगच्चन्द्रसूरि को अपना उत्तराधिकारी घोषित करते हुए उन्हें आचार्यपद प्रदान किया। __ इस प्रकार तपागच्छ पट्टावली के अनुसार श्रमण भगवान् महावीर के ४४वें पट्टधर श्री जगच्चन्द्रसूरि हुए। जगच्चन्द्रसूरि बड़े ही भवभीरु एवं आगमों में प्रतिपादित विशुद्ध श्रमणाचार का प्रतिपालन करने वाले श्रमणोत्तम थे। अपने गच्छ में सर्वत्र व्याप्त शिथिलाचार को देखकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ । संघ नायक आचार्य होने के कारण उन्होंने अपने श्रमण-श्रमणी परिवार में व्याप्त घोर शिथिलाचार को दूर करने के अनेक प्रयास किये । किन्तु उन प्रयासों का कोई सन्तोषप्रद परिणाम नहीं निकला। अन्ततोगत्वा जगच्चन्द्रसूरि ने चित्रवालगच्छ के परम क्रियानिष्ठ देवभद्र उपाध्याय की सहायता से क्रियोद्धार किया। उन्होंने आगमोक्त शुद्ध श्रमणाचार का पालन करते हुए जिनशासन का प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ किया। आपके असाधारण त्याग के प्रभाव से अनेक श्रमण-श्रमरिणयों एवं मुमुक्षुत्रों ने प्रेरणा लेकर निरतिचार विशुद्ध श्रमण धर्म का पालन करना प्रारम्भ किया। जगच्चन्द्रसूरि ने क्रियोद्धार के पथ पर अग्रसर होते समय आजीवन आचाम्ल तप करते रहने की प्रतिज्ञा की। वे देवभद्र उपाध्याय के साथ मेवाड़ में स्थान-स्थान पर विहार कर धर्म का प्रचार करने लगे। उनके कठोर तपश्चरण से प्रभावित हो मेवाड़ के सभी वर्गों के लोग बहुत बड़ी संख्या में उनके श्रद्धालु उपासक बन गये। विशुद्ध क्रियापात्र होने के साथ-साथ जगच्चन्द्रसूरि न्याय शास्त्र के उद्भट विद्वान् एवं महावादी थे। उन्होंने प्राघाटपुर (पाहड़) में दिगम्बर आचार्यों के साथ शास्त्रार्थ कर विजयश्री प्राप्त की। प्राचार्यश्री की इस विजय से प्रभावित हो मेवाड़ के महाराणा जैत्रसिंह ने आपको 'हीरला जगच्चन्द्र' सूरि के विरुद से विभूषित किया । .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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