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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
नहीं है तथापि इनके पट्टधर अजितसिंहसूरि के चैत्यवासियों के समान ही शिथिलाचारपूर्ण प्राचार अपना लेने विषयक उल्लेखों को देखने पर यही विश्वास किया जाता है कि शिथिलाचार की ओर उत्तरोत्तर आकृष्ट हुए अपने गुरु के पदचिन्हों पर चलकर विधिसंघ के छठे आचार्य अजितसिंहसूरि ने शिथिलाचार में चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्यों को भी अपने पीछे छोड़ दिया था। इस सम्बन्ध में मेरुतुगीया पट्टावली का एक उल्लेख प्रत्येक विज्ञ पाठक को चौंका देने वाला है। वह उल्लेख इस प्रकार है :
"ततः क्रमेणाधीतशास्त्रास्ते श्री अजितसिंह यतयोऽपि पत्तने समायाताः तत्र तेऽपि चैत्यवासं विधाय श्री सिंहप्रभ सूरिभिः सह स्थिताः । तत्र निवासिनः सर्वेऽपि तन्तुवायकास्तेषामतीव भक्ति चक्रुः । तत्र क्रमेण श्री सिंहप्रभसूरीणां स्वर्गगमनानन्तरं ते श्री अजितसिंह यतयः सूरिपदार्पणपूर्वकस्तैस्तंतुवायकादिश्राद्धस्तेषां पट्टे स्थापिताः । अथैकदा पूर्णचन्द्राभिधेनैकेन धनवता तत्रत्य तन्तुवायकेन तेषामुपदेशतः संघसहित श्री शत्रुजयतीर्थयात्राकरणार्थं मनोरथः कृतः । ततस्तत्प्रार्थनया श्री अजितसिंह सूरयोऽपि तेन संघेन सह महताडम्बरेण स्वर्णमिश्रितरूप्यसुखपालस्था. उपरिध्रियमाण सुपरिकमितरक्तकौशेयच्छत्राः पार्श्वद्वयोश्चामरैर्वीज्यमाना अग्रचलइंडधरादिपंचविंशतिसशस्त्रसुभटयुता श्रावकश्राविकागणैर्जयजयारावैर्वर्धाप्यमाना सौवर्णतानपरिकर्मितसहस्रटंकमूल्योपेत श्वेतोत्तरपटाच्छादितदेहाश्चेलुः ।"
अजितसिंहसूरि के इस चौदहवीं विक्रमीय शती के शिथिलाचार में और विधिपक्ष के संस्थापक रक्षितसूरि के परदादा गुरु वीरचन्द्रसूरि के विक्रम की ग्यारहवीं शती के शिथिलाचार में कितना साम्य है, इस पर तुलनात्मक दृष्टि से विज्ञों के विचारार्थ वल्लभी शाखा के नवमें प्राचार्य सोमप्रभसूरि (वि० सं० १०५१ में सूरिपद) और इनके समकालीन अंचलगच्छीय पट्टावलीकार के अनुसार श्रमरण भ० महावीर के पैतालीसवें पट्टधर वीरचन्द्रगरिण का एक उल्लेख "अंचलगच्छ दिग्दर्शन" नामक ग्रन्थ से यहाँ यथावत्रूपेण उद्ध त कर रहे हैं :
"प्रथैकदा ते श्री वीरचन्द्रसूरयो विहरतो निजपरिवारयुता प्रह्लादपुरे समायाताः । तदा वल्लभी शाखायाः सोमप्रभसूरयोऽपि विहरतो निजपरिवारयुतास्तत्रैव समेताः । शंखेश्वरगच्छीयानां च तत्रैक एवोपाश्रयोऽभूत् । तत इमौ द्वावपि सूरीन्द्रौ निज निज परिवारयुतौ तत्रैकस्मिन्नेवोपाश्रये स्थिति चक्रतुः । पंचमार्कप्रभावतः परस्परं वन्दननिमित्तस्तयो : परिवारे कलहो बभूव । गच्छश्रावका अपि द्विभागी भूताः । परस्परं स्पर्धां चक्रुः । समुद्राख्येनकेन श्रेष्ठिना च श्री वीरचन्द्रसूरयस्ततो निजवाटके समानीताः । परिवारयुताश्च तेऽपि तत्र चतुर्मासी
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(क) मेरुतुगीया (संस्कृत) पट्टावली । (ख) देखिये अंचलगच्छ दिग्दर्शन, पृष्ठ १३७, १३८ ।
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