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________________ ५४० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ छ । भरत राजाए जैन निगमो प्रवर्ताव्यां हतां, ते सर्व तीर्थंकरो ना समय मां/कायम हतां, अने ते प्रमाणे सोल संस्कारो बगैरेनी क्रिया पण थती हती । दरेक तीर्थंकरों ना समय मां जैनागमो नवां हतां, अर्थात् द्वादशांगी जुदी रचाती हती। महावीर प्रभु ना समय मां जैन निगमो जैन वेदो अने उपनिषदो कायम रह्यां हतां । चैत्यवासियो ना वर्चस्व दरमियांन जैन वेदो अने जैन उपनिषदो लोको मां खूबज प्रचलित रह्यां । चैत्यवासियो नु प्रभुत्व हटतां पण तेत्रो मां थी निगम प्रभावक गच्छ तरीके एक गच्छ कायम रह्यो। (88)..."चैत्यवासियो मां पण अनेक महान् प्राचार्यो थई गया छे, जेमणे शासन नी सारी सेवा करी छ । द्रोणाचार्य, सूराचार्य, गोविन्दाचार्य वगैरे नुचरित्र तपासिये तो स्पष्ट थाय छे के, तेप्रो विद्वान्, शास्त्रज्ञ, अनेकान्त ना यथार्थ व्यवस्थापक, विवेकी, परस्पर स्नेहभाव दर्शावनार अने धर्म रक्षा मां सदा उद्यमशील हता । उत्सव होय, यात्रा होय, के प्रतिष्ठा होय तो सौ मली ने धर्म भावना करता हता । तेरो मां आचार शुद्धि हती, विचारशुद्धि पण रहेती, एक मात्र व्यवहारशुद्धि न हती-एटले के तेश्रो शिथिल हता। ए तेमनी मोटी उणप हती, जेने दूर करवानी अनिवार्य आवश्यकता हती।" इन सब कठिन परिस्थितियों में उन सभी क्रियोद्धारकों को कार्य करना पड़ा। यद्यपि वर्द्धमानसूरि ने विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के अष्टम दशक के समाप्त होते-होते धर्म के आगमिक स्वरूप की पुनः प्रतिष्ठापना के लिए जो धर्मक्रान्ति का सूत्रपात किया था, उससे रक्षितसूरि को अपने अभिनवरूपेण संस्थापित अथवा पुनः प्रतिष्ठापित विधिमार्ग के प्रचार-प्रसार के लिए पर्याप्तरूपेण प्रशस्त पथ मिला, तथापि उन्हें अपनी लक्ष्य-सिद्धि के लिये अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, चैत्यवासियों के सर्वव्यापी वर्चस्व के कारण रक्षितसूरि और उनके साधुओं को निर्दोष आहार पानीय तक नहीं मिला और इस प्रकार की स्थिति में उन्हें आजीवन अनशन के रूप में अपने प्राणों की बाजी तक लगाने का विचार करना पड़ा। रक्षितसूरि (विजयचन्द्रसूरि) के त्याग तप पूर्ण जीवन एवं परीषह सहन से जनमानस उनकी ओर आकर्षित हुआ। रक्षितसूरि ने अप्रतिहत विहारक्रम से प्रागमिक धर्म का प्रचार-प्रसार किया और उनके जीवनकाल में ही विधिमार्ग (अंचलगच्छ अथवा अचल गच्छ) एक सुदृढ़ एवं सशक्त धार्मिक संघ के रूप में लोकप्रिय बन गया। उनके पट्टधर जयसिंहसूरि ने वि० सं० १२३६ से वि० सं० १२५८ तक के अपने प्राचार्यकाल में विधिसंघ गच्छ की उल्लेखनीय आशातीत वृद्धि की। वे अपने समय के महान् वादी थे। उन्होंने दिगम्बर परम्परा के अजेय वादी कुमुदचन्द्र को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिग्दिगन्तव्यापिनी कीर्ति अजित की । जयसिंहसूरि ने अनेक क्षत्रिय वंशों को जैनधर्मावलम्बी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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