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________________ सामान्य श्रृंतधर काल खण्ड २ ] अंचलगच्छ । ५३१. आचार्य रक्षितसूरि के होने का ही कोई संकेत दृष्टिगोचर होता है । इस प्रकार की आधारहीन स्थिति में विक्रम की १७वीं शताब्दी में हुए विद्वान् लेखक उपाध्याय धर्मसागर द्वारा स्वयं के उल्लेखानुसार वि० सम्वत् १२१३ में अंचलगच्छ के नाम से अभिहित किये गये गच्छ के सम्बन्ध में कही गई बात का एक निराधार किंवदन्ती से अधिक महत्व नहीं हो सकता। उपाध्याय धर्मसागर की रचनाओं की न केवल तत्कालीन अन्यान्य सभी गच्छों ने ही अपितु उनके अपने स्वयं के गच्छ, तपागच्छ के प्राचार्यों एवं विद्वानों ने भी कटु आलोचना की है। उपाध्याय धर्मसागर के सम्बन्ध में अंचलगच्छ के शोधप्रिय इतिहासविद् पासवीर वीरजी दुल्ला "पार्श्व' ने लिखा है :-"धर्मसागरजीए अंचलगच्छ नु खण्डन करवा मां अने अनुचित आक्षेपों करवा मां सत्य ने नेवेज मूकी दीधु छ । एमना खण्डनात्मक लखाण थी सर्व मतो खलभली उठ्या अने तेनु जो समाधान न थाय तो आखा जैन समाज मां दावानल अग्नि प्रकटे। पाथी तपागच्छाचार्य विजयदानसूरीए उपर्युक्त (प्रवचन परीक्षा) ग्रन्थ ने पाणी मां बोलावी दीधो (जल में डुबो दिया) अने तेने अप्रमाण ठहराव्यो। धर्मसागरजी ने जिनशासन मांथी बहिष्कृत करवा मां पण आव्या । एमणे एमना बेजवाबदार लखाण माटे संघ नी समक्ष क्षमा पण याची (मांगी) । धर्मसागरजी ना खण्डनात्मक वलण ने लीधे खुद तपागच्छ मां पण भंगाण पड्यु। तपागच्छ 'देवसूर' अने "प्राणन्दसूर" एम बे पक्षो मां विभक्त थयो। हीरविजयसूरिए प्रथम सात बोल अने पाछल थी १२ बोल ए नामे आज्ञाप्रो जाहिर करी अथडामण प्रोछी करवा प्रयासो कर्या । परस्पर गच्छो मां अगाऊ नी माफक प्रेम जलवाई रहे, अने उत्सूत्र प्ररूपणा नी वृद्धि न थाय एटला माटे दसवां बोल मां हीरविजयसूरिए जणाव्यु के -"तथा श्री विजयदानसूरि बहुजन समक्ष जलशरण जे की— उत्सूत्र कन्दकुद्दाल ग्रन्थ-ते मांहिलु जे असम्मत अर्थ बीजा कोई ग्रन्थ मांहि प्राण्यउ हुवई तउ ते तिहां अर्थ अप्रमाण जाणिवहुं ।" __ खरतरगच्छ की ही भांति क्रियोद्धार करने वाले प्रायः सभी गच्छों का विरोधी गच्छों द्वारा डट कर विरोध किया गया ।प्रांचलिक गच्छ भी इस प्रकार के विरोध से अछूता न रहा। ज्यों-ज्यों यह लोकप्रिय होता गया, त्यों-त्यों इसका विरोध भी जोर पकड़ता गया। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ स्व० पंन्यास श्री कल्याणविजयजी महाराज ने अपना अभिमत इस सम्बन्ध में इस प्रकार अभिव्यक्त किया है :---- .........................."और कुमारपाल के राज्यकाल में तो केवल जिनदत्त तथा उनके अनुयायियों का ही नहीं, पौर्णमिक, आंचलिक विधिमार्ग-प्रवर्तक आदि नयेनये गच्छ वालों का पाटण में आना बन्द हो गया था ।......"कुमारपाल के राज्य १. अंचलगच्छ दिग्दर्शन-श्री मुलुण्ड अंचलगच्छ जैन समाज, मुलुण्ड, बम्बई-८०, प्रकाशन - सन् १९६७ ईस्वी, पृ० ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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